शनिवार, 11 जून 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०८

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०८)*
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*२०८. त्रिताल*
*अवधू ! बोल निरंजन बाणी, तहँ एकै अनहद जाणी ॥टेक॥*
*तहँ वसुधा का बल नाहीं, तहँ गगन घाम नहिं छाहीं ।*
*तहँ चंद सूर नहिं जाई, तहँ काल काया नहिं भाई ॥१॥*
*तहँ रैणि दिवस नहिं छाया, तहँ बाव वर्ण नहिं माया ।*
*तहँ उदय अस्त नहिं होई, तहँ मरै न जीवै कोई ॥२॥*
*तहँ नाहीं पाठ पुराना, तहँ आगम निगम नहिं जाना ।*
*तहँ विद्या वाद न ज्ञाना, नहिं तहाँ जोग अरु ध्याना ॥३॥*
*तहँ निराकार निज ऐसा, तहँ जाण्या जाइ न जैसा ।*
*तहँ सब गुण रहिता गहिये, तहँ दादू अनहद कहिये ॥४॥*
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भा०दी०-हे अवधूत ! निरञ्जनब्रह्मविषयकं ज्ञानमुपदिश । यतोहि अन्तर्मुखवृत्यां तस्यैवानुभवो भवति । न हि तत्र पृथिव्यादिभूतानां बलं प्रभवति । न तत्राकाश धर्मो न च मेधच्छाया, तत्र जायते । न च तत्र सूर्याचन्द्रमसोर्गतिरस्ति । न च तत्र कालभयं व्याप्नोति । न च तत्र दिनं रात्रिर्वा वर्तते नच तत्र वृक्षादीनां छाया वर्तते न च वातो वाति न च माया, न वा तद् विकारास्तिष्ठन्ति । न च चन्द्रसूर्यस्तारकाश्च भासन्ते । न च कोऽपि प्रियते जायते वा न च तत्र पुराणाद्यध्ययनमावश्यक न वेदादिशास्त्रपठनं न च नानाविद्या विद्याविद्यन्ते, न च जल्पवादविवाद- वितण्डाकथा भवन्ति । न च मूर्तिध्यानम् । तत्र तु अवाङ्मनो ऽगोचरं निजरूपं ब्रह्मैवाऽस्ति । तस्य निरवधिकं महिमानं वर्णयितुं कः प्रभवेत् ।
उक्तं हि श्वेताश्वतरोपनिषदि-
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चैनम् ।
हृदा हृदिस्थं मनसा य एनमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥
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हे अवधूत सन्त ! आप हमें निरंजन निराकार स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का ज्ञान कहो । क्योंकि अन्तर्मुख वृत्ति करने से उसी का अनुभव होता है । वहां पृथिव्यादि पंचभूतों का कोई बल नहीं है । आकाश धूप और बादल की छाया भी नहीं होती है ।
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वहां पर सूर्य चन्द्र भी नहीं पहुँच सकते । वहां पर शरीर को काल भी नहीं खा सकता और न दिन रात तारे आदि नक्षत्र उदय होते । वहां पर न कोई जीता न कोई मरता । वहां पर न पुराण पढे जाते न वेद शास्त्र जानने में आते । न नाना प्रकार की विद्या ही काम आती और वहां पर न वाद-विवाद चलता और न इन्द्रिय-जन्य ज्ञान या मन के द्वारा जाना जाता । न हठ योग है न मूर्ति आदि की पूजा होती ।
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वहां तो वाणी मन से भी अतीत ब्रह्म है उसी का कथन करो । इस भजन में निषेध मुखेन ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया है । श्वेतज्ञाश्वतरोपनिषद् आदि में ब्रह्म का ऐसा ही वर्णन किया है कि इस परब्रह्म परमात्मा का कोई रूप दृष्टि के सामने नहीं आता, इसको कोई भी आंखों से नहीं देख सकता । साधक जन हृदय में स्थित परमेश्वर को भक्तियुक्त हृदय से निर्मल स्वरूप ब्रह्म को जान लेते हैं, वे अमर हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

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