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*कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटै बधै नहिं जाइ ।*
*पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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३०. निर्विकार ब्रह्म । कहरवा
संतों आवे जाय सु माया,
आदि न अंत मरै नहीं जीवै, सो किन हुं नहि जाया ॥टेक॥
लोक असंख्य भये जा मांहिं, सो किहिं गर्भ समाया ।
बाजीगर की बाजी ऊपर, यहु सब जगत भुलाया ॥१॥
शून्य स्वरूप अकल अविनाशी, पंच तत्त्व नहिं काया ।
अवतार अपार भये आभों१ ज्यों, देखत दृष्टि विलाया ॥२॥
ज्यों मुख एक देखि द्वै दर्पण, भोलों दश कर गाया ।
जन रज्जब ऐसी विधि जाने, ज्यों था त्यों ठहराया२ ॥३॥३०॥
ब्रह्म की निर्विकारता का परिचय दे रहे हैं -
✦ संतों ! जो कि आते जाते हैंवे सब तो माया के ही रूप हैं, जिसका आदि अंत नहीं है, जो मरता नहीं है और जीवित नहीं होता, उस निर्विकार ब्रह्म को किसी ने उत्पन्न नहीं किया है ।
✦ जिसकी सत्ता से असंख्यक लोक उत्पन्न होते हैं, वह किसके गर्भ से आता है ? ईश्वर रूप बाजीगर की संसार रूप बाजी पर ही सब जगत् के प्राणी अनुरक्त होकर उसे भूल रहे हैं ।
✦ उसका स्वरूप सर्व विकार शून्य, कला विभाग रहित अविनाशी है । वह पंच तत्त्व रचित शरीर वाला नहीं है । उस निर्विकार ब्रह्म में आकाश में बादलों१ के समान अपार अवतार हुये हैं और जैसे बादल देखते देखते आकाश मे लय हो जाते हैं, वैसे ही वे अवतार उस ब्रह्म में लय हो गये हैं ।
✦ जैसे दर्पण मे एक मुख के दो मुख दीख जाते हैं, वैसे ही एक ब्रह्म को ही भोले लोगों ने दश रूप में देखा है । वह तो एक ही है, हम तो इसी प्रकार उसे जानते हैं और जैसा वह था वैसा ही उसे हृदय में धारण२ किया है ।
(क्रमशः)

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