बुधवार, 22 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४५/४८*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४५/४८*
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जगजीवन जल बूंद थैं, सकल पसारा कीन्ह ।
आप अलहदा१ होइ रह्या, ताही कूं तूं चीन्ह ॥४५॥
(१. अलहदा=पृथक्)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जल की एक बूंद से सब संसार रच कर आप पृथक है ऐसे प्रभु को हे जीव तू पहचान ।
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(जिन) सूरज सिरजे चंदरमा, सिरजे स्त्रिष्टि आकास ।
सो साहिब क्युं न सेविये, सु कहि जगजीवनदास ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसने सूरज चांद व सृष्टि की रचना की है आकाश भी बनाया है उन मालिक को क्यों नहीं आराधते वे ही हमारे आराध्य हैं ।
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प्रिथिवी सकल तुम हि थैं उपजी, तुम ही मांहि समाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, तुम गति लखी न जाइ ॥४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु यह सारी पृथ्वी तुमसे ही उत्पन्न है और तुम में ही समायी है । संत कहते हैं कि हे प्रभु आपके बिना आपकी गति या लीलाओं को कोइ नहीं जान सकता है ।
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उन ही हाथों होइ सब, तो ए कर२ कौने३ कांम ।
कहि जगजीवन तेज के, सकल फिरै सब ठांम ॥४८॥
(२. ए कर-इसका) (३. कोनै-क्या)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन प्रभु के ही हाथों से सब होता है तो फिर जीव का क्या काम है ? सभी उनके तेज स्वरूप के आधारित हैं जो सर्वत्र विराजता है ।
(क्रमशः)

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