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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४९/५२*
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बांदी औरत घर खाना, खलक४ पड़्या ता मांहि ।
कहि जगजीवन बिनु क्रिपा, कोई निकसै नांहि ॥४९॥
{४. खलक-दुनियां(संसार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारा संसार सेवक, स्त्री भोजन, इन सब में ही उलझा है । बिना प्रभु की कृपा के इससे कोइ नहीं निकल सकता है ।
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महा प्रलै जल जीव कूं, गोखुर५ समंद समांन ।
कहि जगजीवन समंद सुर, रांम तहां गुर ग्यांन ॥५०॥
(५. गोखुर-गौ के खुर से मना गड्ढा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जब महाप्रलय में पड़ता है तो गौ के खुर का खड्डा भी समुद्र के समान हो जाता है । तब वहां उस सागर में जीव की छोटी सी जिह्वा उन अनंत अपार प्रभु की कृत कृत्यों की कीर्ति कैसे गा सकती है ?
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एक जीभ हरि एक मुख, तुम क्रित अनंत अपार ।
कहि जगजीवन सकल लहावौ, सम्रथ सिरजनहार ॥५१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी जिह्वा और मुख तो एक है, और आपकी कीर्ति अनंत अपार है । आप ही वह सब कर सकते हो कि हम सब वह कह सकें ये सामर्थ्य प्रभु आपकी ही है ।
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केइ तारा केइ सूर ससि, केइ जल पवन अकास ।
रांम अखंडित जन लहै, सु कहि जगजीवनदास ॥५२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अनंत तारा कितने ही सूर्य चंद्र, कितने ही जल पवन सब में विराजते हुये भी वे राम प्रभु ब्रह्म स्वरूप हो अखण्डित है ।
(क्रमशः)

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