शुक्रवार, 24 जून 2022

*झेर उजास रु मोद४ लखाई*

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*सहजैं संग परस जगजीवन,*
*आसण अमर अकेला ।*
*सुन्दरी जाइ सेज सुख सोवै,*
*जीव ब्रह्म का मेला ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. २०६)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मार नखो१ इक यूं उठ बोलत,*
*दूसर के जनि मारहु भाई।*
*लेहि पिछान कहूं तु करें मिमि,*
*काट करौ पग झेर२ नखाई३ ॥*
*भूपति आय गयो उन देखत,*
*झेर उजास रु मोद४ लखाई।*
*काढ लिये तब पूछत कारण,*
*भक्त कहै हरि यूंहि कराई ॥२४९॥*
उक्त बात सुनकर एक ठग बोला कि जब इसने ऐसी चतुराई की है तब तो इसको मार डालना१ ही अच्छा है। दूसरा कहने लगा- हे भाइयो! क्यों मारते हो ? धन तो हमारे हाथ आ ही गया। है, अब मारने से क्या है? तब अन्य ठग बोला- "कहीं पहचान कर हमें पकड़ा दे तो क्या करेंगे ?
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इत्यादि कुतर्क रूप परामर्श कर के, जयदेवजी के हाथ पैर काटकर एक बड़े भारी गड्ढे२ में डाल३ दिया।
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उसके पीछे उस वन में गौड़ देश का राजा लक्ष्मणसेन आया था, उसने मनुष्य की आवाज सुन कर सेवकों को देखने की आज्ञा दी तब जयदेवजी को देखा कि—हाथ पैर कटा हुआ एक व्यक्ति गड्ढे में पड़ा है किन्तु उसका मुख प्रसन्न दिखाई देता है और गड्ढा उसके प्रकाश से भरा है।
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में राजा ने जयदेव जी को गड्ढे से निकाला और हाथ पैर कटने का तथा गड्ढे में पड़ने आदि का कारण पूछा-तब भक्त जयदेवजी ने कहा- हरि ने इस शरीर का प्रारब्ध ऐसा ही रचा है। इस प्रसंग में कोई महानुभाव इस प्रकार कहते हैं कि जगन्नाथजी ने कहा था कि जयदेव मेरा ही स्वरूप है। सो अपने वर्तमान विग्रह के समान कराके लोगों को दिखाकर अच्छा कर दिया" ॥
(क्रमशः)

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