सोमवार, 27 जून 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ३२*

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*दादू कोटि अचारिन एक विचारी,*
*तऊ न सरभर होइ ।*
*आचारी सब जग भर्या, विचारी विरला कोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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३२ आचार । त्रिताल
संतों ऐसा यहु आचार,
पाप अनेक करै पूजा में, हिरदै नहीं विचार ॥टेक॥
चींटी दश चौके में मारै, घुण दश हांडी मांही ।
चाकी चूल्है जीव मरैं जो, सो समझै कछु नांही ॥१॥
पाती फूल सदा ही तोड़ै, पूजन को पाषाण ।
पचन१ पतंगे होंहिं आरती, हिरदै नहीं बिनाण२ ॥२॥
सारे जन्म जीव संघारै, इहिं खोटे षट् कर्मा ।
पाप प्रचंड३ चढै शिर ऊपर, नाम कहावै धर्मा ॥३॥
आप दुखी औरों४ दुखदायक, अंतरि राम न जाना ।
जन रज्जब दुख करै दृष्टि बिन, बाहर पाखंड ठाना५ ॥४॥३२॥
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आचार पर अपना विचार प्रकट कर रहे हैं -
✦ संतों ! यह आचार ऐसा है - आचारवान व्यक्ति पूजा के समय भी अनेक पाप करता है, हृदय में विचार नहीं रखता ।
✦ चौका लगाते समय दशों चींटियाँ मार देता है । दालादि बनाते समय हँडिया में दशों घुण पका लेता है । चक्की चूल्हा में जो जीव मरते हैं, उनको कुछ भी नहीं समझता ।
✦ पत्थर की पूजा करने के लिये सदा फूल पत्ते तोड़ता रहता है । आरती में पतंग१ जल मरते हैं, फिर भी हृदय में विशेष विचार२ नहीं आता ।
✦ उक्त हिंसा पूर्ण इन बुरे छ: कर्मो में सारे जन्म जीवों का संहार करता है । इससे शिर पर उग्र३ पाप चढता है और उसका नाम धर्म कहलाता है ।
✦ इनका करने वाला आप दु:खी रहता है और दूसरों४ को भी दु:ख देता है । अपने भीतर स्थित साक्षी रूप राम को नहीं जान पाता ज्ञान दृष्टि बिना बाहर पाखंड करके५ दु:खों का साधन तैयार करता है ।
(क्रमशः)

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