सोमवार, 27 जून 2022

*योग की दूरबीन । पतिव्रता-धर्म*

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*पतिव्रता गृह आपने, करै खसम की सेव ।*
*ज्यों राखै त्यों ही रहै, आज्ञाकारी टेव ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)योग की दूरबीन । पतिव्रता-धर्म*
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पठन जारी है । अब ईश्वर-दर्शन की बात आयी । प्रफुल्ल अब देवी चौधरानी हो गयी है । वैशाख शुक्ला सप्तमी तिथि है । देवी छप्परवाली नाव पर बैठी हुई दिवा के साथ बातचीत कर रही है । चन्द्रोदय हो गया है । नाव का लंगर छोड़ दिया गया है, गंगा के वक्ष पर नाव स्थिर भाव से खड़ी है ।
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नाव की छत पर देवी और उसकी दोनों सहेलियाँ बैठी हुई हैं । ईश्वर प्रत्यक्ष होते हैं या नहीं, यही बात हो रही है । देवी ने कहा, जैसे फूल की सुगन्ध प्राणेन्द्रिय के निकट प्रत्यक्ष है, उसी तरह ईश्वर मन के निकट प्रत्यक्ष होते है ।
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श्रीरामकृष्ण - जिस मन के निकट प्रत्यक्ष होते हैं, वह यह मन नहीं, वह शुद्ध मन है, तब यह मन नहीं रहता, विषयासक्ति के जरा भी रहने पर नहीं होता । मन जब शुद्ध होता है, तब चाहे उसे शुद्ध मन कह लो, चाहे शुद्ध आत्मा ।
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मास्टर - मन के निकट सहज ही वे प्रत्यक्ष नहीं होते, यह बात कुछ आगे है । कहा है, प्रत्यक्ष करने के लिए दूरबीन चाहिए । दूरबीन का नाम योग है । फिर जैसा गीता में लिखा है, योग तीन तरह के हैं - ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग । इस योगरूपी दूरबीन से ईश्वर दीख पड़ते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - यह बड़ी अच्छी बात है । गीता की बात है ।
मास्टर - अन्त में देवी चौधरानी अपने स्वामी से मिली । स्वामी पर उसकी बड़ी भक्ति थी । स्वामी से उसने कहा - 'तुम मेरे देवता हो । मैं दूसरे देवता की अर्चना करना सीख रही थी, परन्तु सीख नहीं सकी । तुमने सब देवताओं का स्थान अधिकृत कर लिया है ।
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - 'सीख न सकी ।' इसे पतिव्रता का धर्म कहते हैं । यह भी एक मार्ग है ।
पठन समाप्त हो गया, श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं । भक्तगण टकटकी लगाये देख रहे हैं, कुछ सुनने के आग्रह से ।
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श्रीरामकृष्ण - (हँसकर, केदार तथा भक्तों से) - यह एक प्रकार से बुरा नहीं । इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं । प्रतिमा में ईश्वर की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी में क्यों नहीं होगी ! आदमी के रूप में वे ही लीला कर रहे हैं ।
"कैसी अवस्था बीत चुकी है ! हरगौरी के भाव में कितने ही दिनों तक रहा था । फिर कितने ही दिन श्रीराधाकृष्ण भाव में बीते थे ! कभी सीताराम का भाव था । राधा के भाव में रहकर 'कृष्ण-कृष्ण' कहता था, सीता के भाव में 'राम-राम ।'
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"परन्तु लीला ही अन्तिम बात नहीं है । इन सब भावों के बाद मैंने कहा, माँ, इन सब में विच्छेद है । जिसमें विच्छेद नहीं है, ऐसी अवस्था कर दो; इसीलिए अनेक दिन अखण्ड सच्चिदानन्द के भाव में रहा । देवताओं की तस्वीरें मैने कमरे से निकाल दीं ।
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"उन्हें सर्व भूतों में देखने लगा । पूजा उठ गयी । यही बेल का पेड़ है, यहाँ मै बेल-पत्र लेने आया करता था । एक दिन बेलपत्र तोड़ते हुए कुछ छाल निकल गयी । मैने पेड़ में चेतना देखी । मन में कष्ट हुआ । दूर्वादल लेते समय देखा, पहले की तरह मैं चुन नहीं सकता । तब बलपूर्वक चुनने लगा ।
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"मै नीबू नहीं काट सकता । उस रोज बड़ी मुश्किल से 'जय काली' कहकर उनके सामने बलि देने की तरह एक नीबू में काट सका था । एक दिन मैं फूल तोड़ रहा था । उसने दिखलाया पेड़ में फूल खिले हुए हैं, जैसे सामने विराट की पूजा हो रही हो - विराट के सिर पर फूल के गुच्छे रखे हुए हों । फिर मैं फूल तोड़ न सका ।
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"वे आदमी होकर भी लीलाएँ कर रहे हैं । मैं तो साक्षात् नारायण को देखता हूँ । काठ को घिसने से जिस तरह आग निकल पड़ती है, उसी तरह भक्ति का बल रहने पर आदमी में भी ईश्वर के दर्शन होते हैं । बंसी में अगर बढ़िया मसाला लगाया हो, तो 'रेहू' और 'कातला' फौरन उसे निगल जाती हैं ।
(क्रमशः)

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