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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५३/५६*
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बलि जाउं ऊगै६ आंथवै७, सब महिं सुभ सुर सेद ।
कहि जगजीवन तेज सोइ, राज सेज क्रम वेद ॥५३॥
(६. ऊगै-उदय होता है) (७-आंथवै-अस्त होता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैं बलिहारी हूं प्रभु के उस स्वरूप की जो उदित व अस्त होता है । सब में जो सुर साज है । संत कहते हैं कि प्रभु का तेजोमय स्वरूप ही जो वेदों में क्रमवार विराज रहा है ।
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अखंडित उपज्या नहीं, सदा एक रस रांम ।
कहि जगजीवन उपजै विनसैं, क्रित्तिम काया धांम ॥५४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सदा अखण्डित है वह जन्म नहीं लेता है सदा समान रहता है । जो जन्म मरण से बंधा है वह कृत्रिम देह है ।
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जे तुम करौ तो होइ सब, न करौ तो कछु नांहि ।
कहि जगजीवन रांमजी, सब जांणै मन मांहि ॥५५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी जो आप करते हो वह ही होता है । अगर आप न करो तो कुछ नहीं होगा । ये बात सब ही मन में जानते हैं कि कर्ता केवल परमात्मा ही है ।
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नहि कोई कलि मंहिं बड़ा, हरि सागर सा मींत ।
जगजीवन एकै सुरति, करै सबन की चींत१ ॥५६॥
(१. चींत-चिन्ता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस कलियुग में प्रभु जी जैसा उदार कोइ मित्र नहीं है वे तो सागर जैसे विशाल ह्रदय है । एक ही ध्यान से वे सबकी चिंता करते हैं ।
(क्रमशः)

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