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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १३/१६*
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जगजीवन बट बीज का, देखौ एक विसतार ।
धनि धनि धनि तूं बिनाणी९, करणीगर करतार ॥१३॥
(९. बिनाणी-विज्ञानी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वट वृक्ष का एक बीज विस्तार पाकर कितना विस्तृत हो जाता है, हे प्रभु आप की इस विज्ञानी कारीगरी को देख हम आश्चर्य जनक रुप से धन्य धन्य कह उठते हैं ।
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नभ१ गिरि२ द्रुग३ तुणका४ सभी, प्रगट प्रभासै मांहि ।
जगजीवन लघु उद्र५ का, ताहि भार कछु नांहि ॥१४॥
(१. नभ-व्यापक आकाश) (२. गिरि-पर्वत) (३. द्रुग-दुर्ग=किला) (४. तुणका--लघु तृण, तिणका) {५. उद्र-उदर(पेट)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आकाश, पर्वत, दुर्ग, और तिनके सभी में प्रभु का अस्तित्व दिखता है । तो फिर इस छोटे से उदर का उनके लिये कोइ भार नहीं है और हम व्यर्थ ही अपना जीवन इसकी पूर्ति के लिये खो देते हैं हमें जीवन को सत्कर्म में लगाना चाहिये ।
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सांचा लघु दीरघ किया, अंस एक सब ठांम ।
कहि जगजीवन नागा मसि६ , चित्र बनाये रांम ॥१५॥
(६. नगा मसि-कलम दवात के बिना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे सत्य स्वरूप परमात्मा लघु को दीर्घ कर दते हैं । उन के अंश सभी स्थानों पर उपस्थित है । उन प्रभु ने बिना स्याही दवात व कलम के जीव रुपी अनेक चित्रों को चित्रित किया है ।
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संजोगे७ मन्दिर रच्या, ग्रभ मांहि दस मास ।
प्राण पिंड संग हि किया, सु कहि जगजीवनदास ॥१६॥
(७. संजोगे-संयोग से)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन प्रभु ने जीव का । संयोग बना कर एक गर्भ रुपी ग्रह जीव के निर्माण हेतु बनाया और फिर प्राण पिंड भी दिया ।
(क्रमशः)

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