शनिवार, 4 जून 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०५

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०५)*
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*२०५. झपताल*
*निकट निरंजन देखि हौं, छिन दूर न जाई ।*
*बाहर भीतर एक सा, सहजैं रह्या समाई ॥टेक॥*
*सतगुरु भेद लखाइया, तब पूरा पाया ।*
*नैनन ही निरखूं सदा, घर सहजैं आया ॥१॥*
*पूरे सौं परचा भया, पूरी मति जागी ।*
*जीव जान जीवन मिल्या, ऐसे बड़ भागी ॥२॥*
*रोम रोम में रम रह्या, सो जीवन मेरा ।*
*जीव पीव न्यारा नहीं, सब संग बसेरा ॥३॥*
*सुन्दर सो सहजैं रहै, घट अंतरजामी ।*
*दादू सोई देखि हौं, सारों संग स्वामी ॥४॥*
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भा०दी०-अतिसन्निकटे हृदयप्रदेश एव निरञ्जनं रामं पश्यामि । क्षणमपि मे हृदयात् स न नि:सरति । स च ब्रह्माण्डस्यान्तर्बहिश्च व्यापकत्वेन स्थितोऽस्ति । अत: सःसर्वभूतेषु वर्तते । सर्वाणि च भूतानि तत्रैवाश्रितानि सन्ति ।
उक्तं च गीतायाम्-
बहिरन्तश्चभूतानाम चरंचरमेव सूक्ष्मात्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् । एतत्सर्वं मया गुरुकृपया प्राप्तम् । अधुना तु मे तदेव ब्रह्महदयदेश एवागतम् । इत्थमहं ज्ञानदृशा तत्पश्यामि । पूर्णगुरुरेव परमार्थसंबन्धिनी बुद्धि दातुं शक्नुनुयात् ॥ अत एव जीवोऽप्ययं जीवन स्वर्वस्वं त्वातदभिन्नस्तस्तत्तादात्म्यमाप्नोति । येन तद्ब्रह्म प्राप्तं स भाग्यवान् भवति । अधुना तु मे जीवनाधायक: प्रभुः प्रतिरोमव्याकत्वेन दृश्यते मया । नहि परमात्मनो भिन्नो जीवः । तदंशत्वात् । अहो अतिरमणीयोऽयं प्रभुरन्तर्यामिरूपेण सर्वशरीरेषु विद्यते अहं च सर्वव्यापकं सर्वसङ्गिनं तमेव परमात्यानं पश्यामि ।
उक्तं च सर्वोपनिषद्संग्रहे-
सर्वव्यापिनमात्मानं क्षीरे सर्पिरिवार्पितम् ।
सर्वसाक्षिणमात्मानं यो वेद न स बध्यते ।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ब्रह्म संपद्यते तदा॥
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मैं अति समीप ही हृदय प्रदेश में राम को देख रहा हूँ । वह राम क्षण भर के लिये भी मेरे हृदय से दूर नहीं होता । वह ब्रह्माण्ड के मध्य बाहर व्यापक रूप से स्थित है । सब भूतों में स्थित है और सब भूत उसमें स्थित है । सबका कारण होने से ।
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गीता में कहा है कि –
वह परमात्मा चराचर भूतों के बाहर और भीतर परिपूर्ण है । चर और अचर भी वहीँ है । किन्तु सूक्ष्म होने से अविज्ञेय है तथा ज्ञानियों के लिये अति समीप है और अज्ञानियों के लिये न जानने के कारण बहुत दूर है । मैंने यह ज्ञान सब गुरु कृपा से ही जाना है । अब तो वह मेरे हृदय प्रदेश में ही आ गया, ऐसा मैं उसे देख रहा हूं । पूर्ण गुरु ही ऐसी परमार्थ संबन्धिनी बृद्धि को दे सकता है ।
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यह जीव भी उस ब्रह्म को जान कर ही जीवन स्वरूप उस ब्रह्म से अभिन्न होता है । जिसने उस ब्रह्म को जान लिया वह भाग्यशाली है । इस समय मेरा जीवन स्वरूप प्रभु रोम-रोम में व्यापक दीख रहा है । क्योंकि यह जीव परमात्मा से भिन्न नहीं उसका अंश होने से । अहो यह परमात्मा तो बडा ही सुन्दर है ।
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अन्तर्यामी बन कर सब शरीरों में विराजता है । मैं तो दिन रात उसी सर्वव्यापक सब का संगी जो परमात्मा है उसी को देख रहा हूँ । जैसे दूध में घृत सर्वव्यापक है वैसे ही परमात्मा को सर्वव्यापक सबका साक्षी जानता है वह संसार में कभी नहीं बंधता । जो सारे प्राणियों को आत्मा में देखता है । तथा आत्मा को सब में स्थित देखता है तब वह साधक ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

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