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*दादू काम धणी के नाम सौं, लोगन सौं कुछ नांहि ।*
*लोगन सौं मन ऊपली, मन की मन ही मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*जयदेव जी की पद्य टीका*
*इन्दव – किन्दुबिलै सु भये जयदेव,*
*धर्यो सिणगार सु काव्यन मांहीं ।*
*नौतम१ रुंख२ रहै दिन ही दिन,*
*है गुदरी सु कमंडल आंहीं३ ॥*
*विप्र-सुता जगनाथ चढ़ावन,*
*जात भयो जयदेव बतांहीं ।*
*जात जहां कविराज विराजत,*
*लेहु सुता यह विप्र कहांहीं४ ॥२३२॥*
पूर्व देश के ‘केन्दु बिल्व’ नामक ग्राम में ब्राह्मण भोजदेव द्वारा राधादेवी के गर्भ से जयदेवजी का जन्म हुआ था । ये श्री हर्ष के वंशज थे, इनके माता पिता बाल्य-काल में ही चल बसे थे । जयदेवजी अच्छे कवि थे । अपने काव्य की कविताओं में आपने भगवान् सम्बन्धी श्रृंगार रस धरा है ।
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आप घर को छोड़कर वन में भी प्रतिदिन नये१ वृक्ष२ के नीचे रहते थे अर्थात् एक वृक्ष के नीचे दो दिन भी नहीं रहते थे, ऐसे विरक्त थे । शरीर निर्वाह के लिये एक गुदड़ी और एक कमण्डलु मात्र ही पास३ रखते थे ।
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जयदेवजी के समय में एक सुदेव नामक ब्राह्मण पुरी गया था और अपनी कन्या जगन्नाथ जी को समर्पण करने की प्रतिज्ञा करके घर आया था । जब कन्या की देने योग्य अवस्था हुई, तब वह उसको लेकर पुरी में जगन्नाथ जी के पास गया । उसे जगन्नाथ ने आज्ञा दी – जयदेव भक्त मेरा ही स्वरूप है । तुम इसको उनके पास ले जाओ और मेरी आज्ञा सुनाकर यह अपनी कन्या उन्हीं को दे दो ।
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जगन्नाथजी की आज्ञा सुनकर ब्राह्मण जहां कविराज जयदेव जी विराजे हुये प्रभु का स्मरण करते थे वहां लड़की को साथ लेकर गया और जयदेवजी से कहा – यह मेरी कन्या मैं आपको अर्पण करता हूँ, इसका कर आप ग्रहण कीजिये ।
(क्रमशः)

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