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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१३)*
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*अथ राग आसावरी ९*
*(गायन समय प्रातः ६ से ९)*
*२१३. उत्तम स्मरण । ब्रह्म ताल*
*तूँ ही मेरे रसना, तूँ ही मेरे बैना,*
*तूँ ही मेरे श्रवना, तूँ ही मेरे नैना ॥टेक॥*
*तूँ ही मेरे आतम कँवल मंझारी,*
*तूँ ही मेरी मनसा, तुम पर वारी ॥१॥*
*तूँ ही मेरे मन ही, तूँ ही मेरे श्वासा,*
*तूँ ही मेरे सुरतैं प्राण निवासा ॥२॥*
*तूँ ही मेरे नखशिख सकल शरीरा,*
*तूँ ही मेरे जियरे ज्यों जल नीरा ॥३॥*
*तुम बिन मेरे अवर को नांही,*
*तूँ ही मेरी जीवनि दादू मांही ॥४॥*
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हे प्रभो ! आप ही मेरी वाणी, जिव्हा, श्रवण, नेत्र, आदि इन्द्रिय समुदाय है । आप ही मेरे हृदय कमल में आत्म रूप से विराज रहे हैं । आप ही मेरी बुद्धि परिवार हैं । आप ही मेरे श्वास प्राण तथा प्राणवृत्तियां है । आप ही मेरे प्राणों के निवास स्थान हैं । नख से शिखा पर्यन्त जो शरीर है यह भी आप ही है ।
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जैसे नीर और जल ये दो नाम ही है इनके अर्थ में कुछ भी भेद नहीं है ऐसे जीव और ब्रह्म भी शब्द भेद ही है अर्थ में कोई भेद नहीं अतः आप ही मेरे जीव हैं । आपके बिना इस संसार में मेरा कोई दूसरा सम्बन्धी नहीं है । आप ही मेरे जीवन के आधार हैं । मैं आप में ही बैठता हूं । इस प्रकार जो अभेद बुद्धि से ब्रह्म से ब्रह्म में सब कुछ ब्रह्म ही है ऐसा सर्वात्मभाव करता है । यह ही उसका स्मरण तथा उत्तम ज्ञान है ।
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लिखा है कि –
हे वरदायक प्रभो ! मुझ को ओर मेरी समस्त चेतन अचेतन रूप वस्तुओं को अपनी सेवा की सामग्री के रूप में स्वीकार करें । मेरे एकमात्र आप ही रक्षक हैं । आप ही मुझ पर दया करने वाले हैं । अतः पापों को मेरी तरफ मत प्रवृत्त कीजिये और प्रवृत्त हुए पापों को नष्ट कर दीजिये ।
इस पद्य में श्रीदादू जी महाराज ने अपना ब्रह्म में सर्वात्मभाव प्रदर्शित किया है । यह सर्वात्मभाव ज्ञान का ही फल है और जीवन्मुक्तदशा में फलना है ।
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वेदान्तसिद्धांतसारसंग्रह में लिखा है कि –
जो समाधि के लिये यत्न करता है उस साधक के संकल्प विकल्प नष्ट हो जाते हैं और उसी से ब्रह्म में सर्वात्मभाव भी पैदा हो जाता है । यह सर्वात्मभाव ही मोक्ष है । विद्वान् को यह सर्वात्मभाव ज्ञान के फलस्वरूप में प्राप्त होता हैं और जीवन्मुक्त को जो स्वानन्दानुभव प्राप्त होता है वह सर्वात्मभाव का ही फल है ।
(क्रमशः)
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