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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५७/६०*
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जगजीवन पूछै हरि, सम्रथ साहिब तोही ।
ए सब रचना क्यूं रची ? कहि समझावौ मोहि ॥५७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी आपसे ही प्रश्न कर पूछते हैं आप ही बताइये कि आपने यह सब क्यों रचा, समझाइये ।
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असम२ तिरे अविगत सकति, अरु जहँ अलख अगाध ।
कहि जगजीवन रांम कहि, सौ सुख समझै साध ॥५८॥
{२. असम-अश्म(=पत्थर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक अदृश्य शक्ति है जिसके प्रभाव से पत्थर भी तैर जाते हैं । वे ही अलख अगाध प्रभु की लीला है जिसे साधुजन समझते हैं और प्रभु उन्हें समझाते हैं ।
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कहि जगजीवन अंबु३ पर, असम तिरै जिहि नांम ।
सौ हरि घट घट बिराजै, त्रिभुवनतारन४ रांम ॥५९॥
(३. अंबु-जल) (४. त्रिभुवनतारन-जगत् के उद्धारकर्ता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस जल पर जिसके प्रभाव से पत्थर तैर जाते हैं उन प्रभु के नाम का प्रभाव ही जब इतना प्रभाव शाली है । वे ही प्रभु हर ह्रदय में विराजते हैं । वे ही तीनों लोकों के तारक प्रभु हैं ।
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कहि जगजीवन एक मन, एक प्राण तन एक ।
वारी फेरूं रांम पर, अैसे होहिं अनेक ॥६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक ही मन है एक प्राण है जो एक ही देह में बसते हैं । अगर ऐसै अनेक हों तो उन प्रभु जी पर वार दूं ।
(क्रमशः)
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