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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४१/४४*
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कहि जगजीवन रांमजी, उद बीरज अंकूर ।
प्रथम परम गुर कंवल कल४, प्रगट किया हरि नूर ॥४१॥
(४- कल-विभाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु बीज से ही अंकुर उदित होता है या प्रकट होता है । परमात्मा रुपी वैज्ञानिक ने गुरु होकर अपनी कला से ह्रदय कमल को विकसित किया है ।
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अंबु वीरज अवनी परस, अविगत अंस निवास ।
परम पुरिष रचना रची, सु कहि जगजीवनदास ॥४२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जल वीर्य, धरती इन पर स्पर्श जीव निवास करता है । यह सब रचना उन परम पुरुष परमेंश्वरं ने ही की है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, इडरज५ सतरज६ खांनि ।
जेरज७ जीव जगाइ हरि, नांऊ धर्या घर बांनि ॥४३॥
(५. इड रज- अण्डज) (६- सत रज-देवयोनि) {७. जेरज-ज़रा युज (=पुरुषयोनि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा ने अण्डज व देव योनि जो कि जीव उत्पत्ति के कारक हैं, में पुरुष योनि संयोग से जीव उत्पत्ति कर जैसा जिसका आवास रहा वैसा ही नाम रख दिया इसमें जाति कुल जैविक योनि सभी के लिये कहा गया है ।
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प्रीति करि सुमर्यां रांमजी, भगति करी सुख मांनि ।
अबिगत अलख अगाध हरि, ते जन लिया पिछांनि ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु स्मरण प्रेम कर करें और भक्ति करके सुख माने जो प्रेम से स्मरण व भक्ति कर सुख का अनुभव करता है प्रभु उसे अच्छे से पहचान जाते हैं ।
(क्रमशः)
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