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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१२)*
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*२१२. (गुजराती) अनभई । त्रिताल*
*मूने येह अचंभो थाये ।*
*कीड़ीये हस्ती विडार्यो, तेन्नें बैठी खाये ॥टेक॥*
*जाण हु तो ते बैठो हारे, अजाण तेन्नें ता वाहे ।*
*पांगुलोउ जाबा लाग्यो, तेन्नें कर को साहे ॥१॥*
*नान्हो हुतो ते मोटो थायो, गगन मण्डल नहिं माये ।*
*मोटे रो विस्तार भणीजे, ते तो केन्नें जाये ॥२॥*
*ते जाणे जे निरखी जोवे, खोजी नें वलीमांहे ।*
*दादू तेन्नों मर्म न जाणें, जे जिह्वा विहूणों गाये ॥३॥*
*इति राग रामकली समाप्त ॥८॥पद ४६॥*
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भा०दी०-रन्ध्रान्वेषणशालिनी पिपीलिकारूपाऽन्तःकरणवृत्तिविवेकवैराग्यादिसाधन संवलिताऽऽत्मज्ञानविचारेण कामरूपं महाबलिनं हस्तिनं शत्रु निहत्य तज्जन्यं विक्षेपं क्षपति । इति महदाश्चर्य मम । कथं लधुपिपीलिका हस्तिनं हन्तुं प्रभवति । परन्तु ज्ञानस्यैतन्माहात्म्यं यल्लध्वपि महान्तं शत्रु हन्तुं प्रभवति विवेकवैराग्यादिसहायेन ।
उक्तं हि-वेदान्त संदर्भे-
आरूढस्य विवेकावं तीव्रवैराग्यखड्गिनः ।
तितिक्षावर्मयुक्तस्य प्रतियोगी न दृश्यते ॥
विवेकजां तीव्रविरक्तिमेवमुक्तेर्निदानं निगदन्ति सन्तः ।
तस्माद् विवेकी विरतिं मुमुक्षुः संपादयेत्तां प्रथमं प्रयत्नात् ॥
अतो ये ज्ञानिनस्ते तु संसारे विद्यमाना अपि वेकविचारेणात्मज्ञानमुपलभ्य स्वस्वरूपे विपेक्षादिरहिता अवतिष्ठन्ति । अज्ञानिनस्तूत्तरोत्तरसांसारिकवासनाव्याजेन बलाद् बारंबारं संसारे पतन्ति ।
उक्तं हि वेदान्तसंदर्भे-
पुमानजात निर्वेदोदेहवन्धं जिहासितुम् ।
नहि शक्नोति निर्वेदो वन्धभेदो महानसौ॥
वैराग्यरहिता एव यमालय इवालये ।
क्लिश्यन्ति त्रिविधै स्तापैर्मोहिता अपि पण्डिताः ॥
मदीयं मनोऽपि पूर्वं चाञ्चल्येन न प्रभुं भजति स्म । अधुना तु चाञ्चल्यं विहाय प्रभुं सततं ध्यायत् प्रवर्तते । न कोऽपि शत्रुस्तद्भजने वाधामुपस्थापयितुं शक्नोति । यतस्तस्य सर्वविधशुद्धि समन्वितत्वात् । अज्ञानदशायान्तु परमात्माऽतितुच्छं प्रतीयते ज्ञानदशायां तु स एव साक्षान्महान् प्रतीयते । तत्रत्त्वित्वियान् महान् यदाकाशेऽपि न माति । अर्थात् व्यापकत्वेन बहिश्चान्तराले सर्वत्र भासते ।
यस्य ब्रह्मणोऽतिसूक्ष्मतयाऽन्तं निरूपयितुं न कोऽपि समर्थः । नहि जगति कोऽपि पुरुष समुत्पत्नो यस्तं सामस्त्येन विज्ञातुमर्हः । अतो मम विचारेण यस्तं परमात्मानं द्रष्टुं यतते स एव तं पश्यति । सः प्रभुः स्वात्मान्वेषकमात्मनि निवेशयति । तस्य जिह्वां विनैव ध्यानावस्थायां गुणान् गायन्ति भक्ताः । आद्यन्तरहितस्य तस्य पूर्णरूपेण गुणगानमपि कः कर्तुमर्हः । न कोऽपीत्यर्थः । ज्ञात्वैव गुणो गायते नान्यथेति भावः ।
॥ इति श्रीमद् आत्मारामस्वामिकृतभावार्थदीपिकायां रामकलीराग: समाप्तः ॥ ८ ॥
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दुर्वासना से युक्त दूसरों के छिद्रों को ही देखने वाली अन्तःकरण की वृत्ति रूपी चींटी जब विवेक वैराग्य आदि साधनों द्वारा निर्दृष्ट होकर आत्मज्ञान द्वारा महान् बलवान् काम शत्रु को मारकर अपने आत्मा में स्थिर होकर कामजन्य विक्षेप को भी इसने नष्ट कर दिया ।
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यह एक महान् आश्चर्य है कि छोटी सी चींटी हाथी को कैसे मार सकती है? परन्तु यह ज्ञान का महात्म्य है कि वह छोटा होता हुआ भी विवेक वैराग्यादि साधनों की सहायता से महान् से महान् शत्रु को भी नष्ट कर देता है ।
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वेदान्तसंदर्भ में कहा है कि –
जो ज्ञानी पुरुष विवेक रूपी घोड़े पर बैठा है और हाथ में शत्रु को मारने के लिये तलवार धारण कर रखी है तथा अपनी सुरक्षा के लिये सारे शरीर पर कवच धारण कर रखा है उसको भला कौन शत्रु मार सकता है? उसके साथ लडने वाला प्रतियोगी योद्धा है ही नहीं । इसीलिये सन्तों ने तीव्र विवेक और वैराग्य को ही मुक्ति का कारण बतलाया है ।
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अतः मुमुक्षु को सबसे पहले प्रयत्नपूर्वक विवेक वैराग्य को धारण करना चाहिये । अतः जो ज्ञानी है वे तो संसार में रहते हुए अपने विचार द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करके विक्षेप से रहित आत्मा में स्थित रहते हैं । परन्तु अज्ञानी तो उत्तरोतर सांसारिक वासना के कारण बार बार इस संसार में पडते रहते हैं ।
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वेदान्तसंदर्भ में कहा है कि –
जब तक साधक को निर्वेद पैदा नहीं होता तब तक वह देह बन्धन को नष्ट नहीं कर सकता क्योंकि देह का बन्धन महान् है । बिना निर्वेद के नष्ट नहीं हो सकता । जो वैराग्य रहित प्राणी है, वे यमलोक की तरह इस शरीर में रहते हुए त्रिविध तापों से क्लेश पाते रहते हैं । चाहे वे पण्डित ही क्यों न हो क्योंकि वे अपने अज्ञान से मोहित रहते हैं ।
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श्रीदादूजी महाराज कहते हैं कि मेरा मन पहले चंचलता के कारण प्रभु को नहीं भजता था परन्तु अब ज्ञान होने से चंचलता का त्याग कर सतत प्रभु को ही भजता रहता है । क्योंकि ज्ञान से उसकी सब प्रकार की शुद्धि हो गई । अज्ञान दशा में तो भगवान् तुच्छ मालूम पड़ता था । अब तो इतना महान् प्रतीत होता है । कि महान् आकाश में भी नहीं समाता अर्थात् व्यापक होने से वह बाहर भीतर सर्वत्र दीख रहा है । यह ब्रह्म अति सूक्ष्म है इसके अन्त का कोई वर्णन नहीं कर सकता ।
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इस जगत् में ऐसा कोई पुरुष पैदा नहीं हुआ जो इसको पूर्णतया जान जाय । अतः मेरे विचार से जो इस ब्रह्म को देखने के लिये यत्न करता है वह उसको जान सकता है । वह प्रभु अपने को खोजने वाले को अपनी आत्मा में लीन कर लेते हैं । वह साधक ध्यानावस्था में उसके गुण गाता रहता है । आदि अन्त से रहित उस पूर्ण ब्रह्म का गुण भी पूरी तरह कोई नहीं गा सकता । क्योंकि गुण गान भी जब ही कर सकता है जब उसको जानता हो । बिना जाने गुण ज्ञान भी कैसे किया जाय ।
(क्रमशः)

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