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*राखणहारा राख तूँ, यहु मन मेरा राखि ।*
*तुम बिन दूजा को नहीं, साधू बोलैं साखि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*देख विचार जहां अधिकार,*
*विभौ विस्तार तहां यह दीजे ।*
*श्री जगनाथ कि आयसु राखहु,*
*टरहु नांहिं कुदूषण भीजे ॥*
*ठाकुर के तिय लाख फबै,*
*हम को नहिं सोहत एक हि खीजे ।*
*जाहु वहां फिर बात कहो तुम,*
*नाम तिया वह रुंख न धीजे ॥२३३॥*
जयदेव जी ने कहा – आप विचार करके देखिये ! जहां कन्या देने का अधिकार हो, जो गृहस्वामी हो, जिसके पास विभव का विस्तार हो, उसी को यह कन्या दीजिये ।
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ब्राह्मण बोला – महाराज ! मैं यदि अपनी इच्छा से कन्या देता तब तो विभव आदि का विचार अवश्य करता । मैं श्री जगन्नाथजी की आज्ञा से आपको कन्या दे रहा हूं । आप भी श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा का पालन करें । भगवान् की आज्ञा को हटावें नहीं । हटाने से आपको बुरा दोष लगेगा । जयदेवजी ने कहा – मैं श्री जगन्नाथजी की ऐसी आज्ञा पालन करने में समर्थ नहीं हूँ ।
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उनको लाख स्त्रियें रखने पर भी शोभा देंगीं और मुझे एक भी शोभा नहीं देगी । इतना कहना ही आप को बहुत है, अधिक कहने से तो आप कुपित होंगे ।
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आप पुनः वहां जाकर श्री जगन्नाथजी को मेरी यह बात कहो कि जयदेव तो स्त्री नाम वाले वृक्षों का भी विश्वास नहीं करता है । अर्थात् जो नीमड़ी, पीपली आदि नाम से बोले जाते हैं, उनके नीचे बैठता भी नहीं है, फिर वह साक्षात् स्त्री कैसे रक्खेगा ?
(क्रमशः)

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