रविवार, 19 जून 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२११

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२११)*
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*२११. रूपक ताल*
*इहै परम गरु योगं, अमी महारस भोगं ॥टेक॥*
*मन पवना स्थिर साधं,*
*अविगत नाथ अराधं, तहँ शब्द अनाहद नादं ॥१॥*
*पंच सखी परमोधं,*
*अगम ज्ञान गुरु बोधं, तहँ नाथ निरंजन शोधं ॥२॥*
*सद्गुरु मांहि बतावा,*
*निराधार घर छावा, तहँ ज्योति स्वरूपी पावा ॥३॥*
*सहजैं सदा प्रकाशं,*
*पूरण ब्रह्म विलासं, तहँ सेवग दादू दासं ॥४॥*
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भा०दी०-गुरुणोपदिष्टस्य योगसाधनस्य ज्ञानामृतरूपस्य महारसस्य चोपभोगोऽस्मिन्नेव नरशरीरे भवति । अनेनैव शरीरेण योगसाधनद्वारा प्राणान्निरुध्य विषयेभ्यो मनः परावृत्य ब्रह्मण उपासना भवति । यदा चानाहतनादध्वनिः श्रूयते तदा पञ्चयेन्द्रियाणि विषयासक्तिरूपनिद्रातो जाग्रन्ति । गुरोरूपदेशेन श्रवणमननादिना ब्रह्मण: परोक्षज्ञानं भवति । ततश्च निदिध्यासनेन परमात्मानमन्विष्य तदभेदरूपेण साधकस्तं प्राप्नोति । अतोऽस्मिन्नेव शरीरे सर्वं भवतीति गुरूणेपदिष्टम् । अहमपि निराकारे ब्रह्मणि वर्तमानो ज्योति: स्वरूपं परब्रह्म पश्यामि । अनायासेनैव साक्षात्कारजनितमानन्द मनुभवामि । अन्तःकरणवृत्या च तद् ब्रह्म सततं निर्धारयामि ।
उक्तं हि विवेकचूडामणौ-
आप्तोक्ति खननं तथोपरि शिलाद्युत्कर्षणं स्वीकृति निक्षेपः समपेक्षते नहि बहिः शब्दैस्तु निर्गच्छति । तद्वद् ब्रह्म विदोपदेशमननध्यानादिभिर्लभ्यते ।
माया कार्यतिरोहितं स्वममलं तत्वं न दुर्युक्तिभिः ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भवबन्धविमुक्तये स्वैरेव यत्नःकर्तव्यो रोगादाविवपण्डितैः ॥
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परम गुरु ने मुझे जो योग साधना और ज्ञानामृत का उपदेश दिया है उसका उपभोग(अनुभव) इसी शरीर में होता है । इसी शरीर में योग साधना के द्वारा प्राणों का अवरोध करके मन को प्रत्याहार द्वारा विषयों से हटाकर परब्रहम परमात्मा की उपासना होती है । योग साधना में जब अनाहत नाद की ध्वनि सुनाई पड़ने लगती है तब हमारी प्यारी सखी रूप पांचों इन्द्रियाँ विषयों की आसक्ति को त्याग कर जग जाती है । गुरु के उपदेश द्वारा आत्मा का श्रवण करके आत्मा का परोक्ष ज्ञान किया जाता है ।
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उसके बाद निदिध्यासन द्वारा निरंजन निराकार परमात्मा को खोजकर साधक अभेद रूप से उसको प्राप्त कर लेता है । अर्थात् उससे मिल जाता है । अतः सब कुछ ज्ञान इसी शरीर में ही होता है । मैं भी ज्योति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को देखता हूँ और अनायास ही साक्षात्कार रूप आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ, अपनी अन्तःकरण की वृत्ति से उस परमात्मा को भजता हूँ ।
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विवेकचूडामणि में –
जैसे पृथिवी में गडे हुए धन को प्राप्त करने के लिये पहले किसी विश्वसनीय पुरुष के कथन की, फिर पृथ्वी को खोदने की कंकड पत्थर आदि को हटाने की तथा प्राप्त धन को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है । कोरी बातों से वह धन बाहर नहीं निकलता ।
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उसी प्रकार समस्त मायिक प्रपञ्च से शून्य, निर्मल आत्मतत्व भी ब्रह्मवित् गुरु के उपदेश तथा उसके मनन निदिध्यासन आदि से ही प्राप्त होता है, थोथी बातों से नहीं । इसलिये रोग आदि के समान भवबन्ध की निवृत्ति के लिये विद्वान को अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर स्वयं ही प्रयत्न करना चाहिये ।
(क्रमशः)

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