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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ३७/४०*
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रांम सकल अबिगत अकल, वो हरि अपरंपार ।
कहि जगजीवन परम सुख, परम पुरुष की लार ॥३७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम सब में न दिखते हुये भी वो निरंतर अपरंपार है । अगर हम परम सुख चाहते हैं तो हमें उस परम पुरुष परमात्मा का ही अनुसरण करना चाहिए ।
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रांम रांम हरि जे लहै, सोई कहै गुंन गाइ ।
कहि जगजीवन अगम करि, सहजै सुंनि समाइ ॥३८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन राम राम कहते हैं । वे ही राम नाम की महिमा गा सकते हैं राम स्मरण ही राम महिमा है । प्रभु तो ब्रह्म है वे तो शून्य में निहित है ।
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होइ न कहतां सब हुआ, हुकम नालि मन अंस ।
कहि जगजीवन क्रिषन हरि, ब्रह्मा छत्री वंस ॥३९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अगर जीव मन से सब करे तो कहते ही मनोवांछित मिलता है । ब्रह्म के अंश हो कृष्ण, ब्रह्मा, हरि ये सब क्षत्रिय वंशज कहलाये किंतु ये अंश तो ब्रह्म के ही रहे ।
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कहि जगजीवन किया कूं, फेरि करै३ केइ बार ।
आप अकरता अगम हरि, नां तिंहि वार न पार ॥४०॥
(३. फेरि करै-पुनः पुनः करे । धाता यथापूर्वमकल्पयत् ।)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो कुछ हो चुका उसकी पुनरावृत्ति कितने ही जन बार बार करते हैं । किंतु जो प्रभु कर्ता है वे दिखते नहीं है उनकी लीलाओं का कोइ वार पार नहीं है ।
(क्रमशः)

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