सोमवार, 6 जून 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०६

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२०६)*
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*२०६. परिचय उपदेश । त्रिताल*
*सहज सहेलड़ी हे, तूँ निर्मल नैन निहारि ।*
*रूप अरूप निर्गुण आगुण में, त्रिभुवन देव मुरारि ॥टेक॥*
*बारम्बार निरख जग जीवन, इहि घर हरि अविनाशी ।*
*सुन्दरी जाइ सेज सुख विलसे, पूरण परम निवासी ॥१॥*
*सहजैं संग परस जगजीवन, आसण अमर अकेला ।*
*सुन्दरी जाइ सेज सुख सोवै, जीव ब्रह्म का मेला ॥२॥*
*मिलि आनन्द प्रीति करि पावन, अगम निगम जहँ राजा ।*
*जाइ तहाँ परस पावन को, सुन्दरी सारे काजा ॥३॥*
*मंगलाचार चहुँ दिशि रोपै, जब सुन्दरी पिव पावै ।*
*परम ज्योति पूरे सौं मिल कर, दादू रंग लगावै ॥४॥*
भा०दी०-हे बुद्धिरूपसखि ! त्वां संवोधयाम्यहम् । त्वं निर्द्वन्द्वा संशयाविषर्यादिदोषरहिता त्रिभुवनस्वामिनं मुरारिं रूपेषु निरूपेषु गुणेषु निर्गुणेषु सर्वत्र ज्ञानदृशा पश्य । सोऽविनाशी परमात्माजगज्जीवनभूतो हद्देशे वसति । अतस्त्वं तमेव प्रभुं निरन्तरं पश्य । तथा सति हे सुन्दरि त्वं विश्व व्यापिन:परिपूर्णस्य प्रभोः स्वरूपशय्यामधिगत्य परमसुखोपभोगं विधास्यति । अनायासेनैव तस्य स्पर्श कृत्वा तत्संगेनाद्वैतममरास्पदं प्राप्स्यति । इत्थं मनोरूपसखी तदाकारतां प्राप्य ब्रह्मानन्दे निमज्जति । तदा ब्रह्मत्वभावमधिगच्छति । यत्र वेदैरप्यगम्यं ब्रह्म विराजते । तत्र प्रेम्णा संगत्य सानन्दमानन्दमनुभवति । तत्रोपेत्य तस्य पावनेन स्पर्शेन तस्या: सर्वाभिलाषा सिद्ध्यति । यदा च सा मनोवृत्तिरूपा प्रभुं प्राप्नोति तदाऽन्तःकरणचतुष्टये सर्वत्र मंगलाचारो भवति । एवं साधकःपूर्णब्रह्मीभावं प्राप्यान्यानपि स्वसदृशान् करोति । अत्र ब्रह्मणि मनोवृत्तेः सुषुप्तिस्थितिप्रतिपादनेन जीवन्मुक्तदशा वर्णिता साधकस्य ।
उक्तं हि विवेकचूडामणौ-
ब्रह्माकारतया सदा स्थिततया निर्मुक्तबाह्यार्थधी-
रन्यावेदित भोग्यभोगकलनो निद्रालुवद्वालवत् ।
स्वप्नालोकितलोकवज्जगदिदं पश्यन् क़चिल्लब्धधी
रास्तेकश्चिदनन्तपुण्यफलभुग्धन्य: स मान्यो भुवि ॥
स्थितप्रज्ञो यतिरयं य: सदानन्दमश्नुते ।
ब्रह्मण्येव विलीनात्मा निर्विकारो विनिष्क्रियः ॥
ब्रह्मात्मनोः शोधितयोरेकभावावगाहिनी ।
निर्विकल्या च चिन्मात्रा वृत्तिःप्रज्ञेति कथ्यते॥
सुस्थिता सा भवेद् यस्य जीवन्मुक्त: स उच्यते ॥
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हे बुद्धिरूप सखी ! मैं तेरे को ज्ञान देता हूँ, किन्तु निर्द्वन्द्व संशय विपर्य आदि दोषों से रहित निर्मल होकर त्रिभुवन के स्वामी को रुपवानों में, नीरुपों में, गुणवानों में, निर्गुणों में, सर्वत्र ज्ञान दृष्टि से भगवान् मुरारि को ही देख । वह अविनाशी परमात्मा जगत् का जीवन रूप हृदय घर में ही रहता है । उस प्रभु को तू बार बार देख ।
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ऐसा करने से हे सुन्दरी ! विश्व व्यापी परिपूर्ण प्रभु की स्वरुपाकार शय्या पर परमसुख का उपभोग करेगी । अनायास ही उनके स्पर्श को प्राप्त करके उनके संग से अजर अमन भाव को प्राप्त हो जायगी । इस प्रकार मन की वृत्ति ब्रह्माकार होकर ब्रह्मानन्द में सो जायगी, लीन हो जायगी । वहां पर ऐसा ब्रह्म सुशोभित हो रहा है कि जो वेदों से भी नहीं जाना जाता ।
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वहां पर उसके प्रेम में मिलकर आनन्द को भोगेगी । उस समय अन्तःकरण चतुष्टय में मंगलाचार होने लगेगा । ऐसा साधक पूर्ण ब्रह्म होकर दूसरों को भी अपने समान बना लेता है । यहां पर इस पद्य में मन की वृत्ति को ब्रह्म में शयन करने के भाव से जीवन मुक्त की दशा का प्रतिपादन किया है ।
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विवेकचूडामणि में लिखा है कि –
निरन्तर ब्रह्माकार वृत्ति के स्थिर रहने के कारण जिसकी बुद्धि विषयों से निकल गई है और जो निन्द्रालु की तरह तथा बालक के समान दूसरों के निवेदन करने पर ही भोग्य पदार्थों का सेवन करता है, तथा कभी विषयों में बुद्धि के जाने पर जो इस संसार को स्वप्न प्रपंच के समान देखता है वह अनन्त पुण्यों के फलों का भोगने वाला कोई ज्ञानी पुरुष इस पृथ्वी तल पर है वह धन्य माना जाता है और सब का माननीय है ।
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जो यति अपने चित्त को परब्रह्म में लीन करके विकार और क्रिया का त्याग करके ब्रह्म में मग्न रहता है वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है । तत्वमसि आदि वाक्यों से शोधित ब्रह्म और आत्मा की एकता को ग्रहण करने वाली विकल्प रहित चित्तवृत्ति को प्रज्ञा कहते हैं । यह चिन्मात्र वृत्ति जिसकी स्थिर हो जाती है वही जीवन्मुक्त कहलाता है ।
(क्रमशः)

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