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*आनन्द मंगल भाव की सेवा,*
*मनसा मन्दिर आतम देवा ।*
*भक्ति निरन्तर मैं बलिहारी,*
*दादू न जानै सेव तुम्हारी ।*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. ४४०)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(५)श्रीरामकृष्ण कीर्तनानन्द में*
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ब्राह्म समाज के श्री त्रैलोक्य गाना गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते-सुनते एकाएक खड़े हो गये और ईश्वर के आवेश में बाह्यज्ञान-शून्य हो गये । एकदम अन्तर्मुख, समाधिमग्न । खड़े खड़े समाधिमग्न । सभी लोग घेरकर खड़े हुए । बंकिम व्यस्त होकर भीड़ हटाकर श्रीरामकृष्ण के पास जाकर एकदृष्टि से देख रहे हैं । उन्होंने कभी समाधि नहीं देखी थी ।
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थोड़ी देर बाद थोड़ा बाह्य ज्ञान होने के बाद श्रीरामकृष्ण प्रेम से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे । मानो श्रीगौरांग श्रीवास के मन्दिर में भक्तों के साथ नृत्य कर रहे हैं । वह अदभुत नृत्य बंकिम आदि अंग्रेजी पढ़े लोग देखकर दंग रह गये ।
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क्या आश्चर्य ! क्या इसी का नाम प्रेमानन्द है ? ईश्वर से प्रेम करके क्या मनुष्य इतना मतवाला हो जाता है ? क्या ऐसा ही नृत्य नवद्वीप में श्रीगौरांग ने किया था ? क्या इसी तरह उन्होंने नवद्वीप में और श्रीक्षेत्र में (पुरी में) प्रेम का बाजार बैठाया था ? इसमें तो ढोंग नहीं हो सकता ।
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ये सर्वत्यागी हैं, इन्हें धन, मान, यश - किसी चीज की आवश्यकता नहीं है । तो क्या यही जीवन का उद्देश्य है ? किसी ओर मन न लगाकर ईश्वर से प्रेम करना ही क्या जीवन का उद्देश्य है ? अब उपाय क्या है ? उन्होंने कहा, 'माँ के लिए बेचैन होकर व्याकुल होना, व्याकुलता, प्रेम करना ही उपाय है, प्रेम ही उद्देश्य है । सच्चा प्रेम आते ही दर्शन होता है ।’
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भक्तगण इसी प्रकार चिन्तन करने लगे और उस अद्भुत देवदुर्लभ नृत्य एवं कीर्तन का आनन्द प्रत्यक्ष करने लगे । - सभी श्रीरामकृष्ण के चारों ओर खड़े हैं - और एकटक उन्हें देख रहे हैं ।
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कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर रहे हैं । ‘भागवत-भक्त-भगवान' इस कथन का उच्चारण करके कह रहे हैं, 'ज्ञानी, योगी, भक्त - सभी के चरणों में प्रणाम ।' फिर सब लोग उनके चारों और घेरकर बैठ गये ।
(क्रमशः)

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