शुक्रवार, 17 जून 2022

ईश्वर ही वस्तु है

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*आदि अंत लौं आय कर, सुकृत कछू न कीन्ह ।*
*माया मोह मद मत्सरा, स्वाद सबै चित दीन्ह ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण - संसार में होगा क्यों नहीं ? परन्तु विवेक और वैराग्य चाहिए । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है, यह विचार दृढ़ रहना चाहिए । ऊपर उतराते रहने से न होगा । डुबकी मारनी चाहिए ।
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"एक बात और; काम आदि घड़ियालों का भय है ।"
गिरीश - परन्तु यम का भय मुझे नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, काम आदि घड़ियालों का भय है । इसीलिए हलदी लगाकर डुबकी मारनी चाहिए - हलदी है विवेक और वैराग्य ।
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"संसार में किसी किसी को ज्ञान होता है । इस पर दो तरह के योगियों की बात कही गयी है - गुप्त योगी और व्यक्त योगी । जिन लोगों ने संसार का त्याग कर दिया है, वे व्यक्त योगी हैं, उन्हें सब लोग पहचानते हैं । गुप्त योगी व्यक्त नहीं होता । जैसे नौकरानी - सब काम तो करती है, परन्तु मन अपने देश में बालबच्चों पर लगाये रहती है ।
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और जैसा मैंने तुमसे कहा है, व्यभिचारणी औरत घर का कुल काम तो बड़े उत्साह से करती है, परन्तु मन से वह सदा अपने यार की याद करती रहती है । विवेक और वैराग्य का होना बड़ा मुश्किल है, 'मैं कर्ता हूँ' और 'ये सब चीजें मेरी हैं’, यह भाव बड़ी जल्दी दूर नहीं होता ।
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एक डिप्टी को मैंने देखा, आठ सौ रुपया महीना पाता है; ईश्वरी बातें हो रही थीं, उधर उसका जरा भी मन नहीं लगा । एक लड़का साथ ले आया था, उसे कभी यहाँ बैठाता था, कभी वहाँ । मैं एक आदमी को जानता हूँ, उसका नाम न लूँगा, खूप जप करता था, परन्तु दस हजार रुपयों के लिए उसने झूठी गवाही दी थी ।
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"इसीलिए कहा, विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।”
गिरीश - इस पापी के लिए क्या होगा ?
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हो गाने लगे –
"ऐ जीवो, उस नरकान्तकारी श्रीकान्त का चिन्तन करो, इस तरह कृतान्त के भय का अन्त हो जायेगा । उनका स्मरण करने पर भवभावना दूर हो जाती है, उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है । सोचो तो, किस तत्त्व की प्राप्ति के लिए तुम इस मर्त्यलोक में आये, पर यहाँ आकर चित्त में बुरी वृत्तियाँ भरना शुरू कर दिया ! यह कदापि उचित नहीं, इस तरह तुम अपने को डुबा दोगे । अतएव उस नित्यपद की चिन्ता करके अपने इस चित्त का प्रायश्चित्त करो ।"
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श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।
"महामाया के द्वार छोड़ने पर उनके दर्शन होते हैं, महामाया की दया चाहिए । इसीलिए शक्ति की उपासना की जाती है । देखो न, पास ही भगवान हैं, फिर भी उन्हें जानने के लिए कोई उपाय नहीं, बीच में महामाया है, इसलिए राम, सीता और लक्ष्मण जा रहे हैं; आगे राम हैं, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण । राम बस ढाई हाथ के फासले पर हैं, फिर भी लक्ष्मण उन्हें नहीं देख पाते ।
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"उनकी उपासना करने के लिए एक भाव का आश्रय लिया जाता है । मेरे तीन भाव हैं, सन्तानभाव, दासीभाव और सखीभाव । दासीभाव और सखीभाव में मैं बहुत दिनों तक था । उस समय स्त्रियों की तरह गहने और कपड़े पहनता था । सन्तानभाव बहुत अच्छा है ।
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"वीरभाव अच्छा नहीं । मुण्डे और मुण्डियाँ, भैरव और भैरवियाँ, ये सब वीरभाव के उपासक हैं, अर्थात् प्रकृति को स्त्रीरूप से देखना और रमण के द्वारा उसे प्रसन्न करना - - इस भाव में प्रायः पतन हुआ करता है ।"
गिरीश - मुझ में एक समय वही भाव आया था ।
श्रीरामकृष्ण चिन्तित हुए-से गिरीश को देखने लगे ।
गिरीश - इस भाव का कुछ अंश शेष है । अब उपाय क्या है, बतलाइये ।
श्रीरामकृष्ण - (कुछ देर चिन्ता करके) - उन्हें आम मुखत्यारी दे दो, उनकी जो इच्छा हो, वे करें ।
(क्रमशः)

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