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*नखसिख सब सुमिरण करैं, ऐसा कहिये जाप ।*
*अन्तर बिगसै आत्मा, तब दादू प्रगटै आप ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*बैंगन के वन मालिनी गावत,*
*पंचम सर्ग कथा वनमाली ।*
*लार फिरै जगनाथ झगो तन,*
*घूमत लागत प्रेम सुझाली ॥*
*दौर फटे लखि बूझत है नृप,*
*सेवक देखि बजावत ताली ।*
*श्री जगनाथ कहै सर्ग पंचम,*
*चालि गयो वन गावत आली ॥२३८॥*
एक दिन एक माली की कन्या बैंगन की बाड़ी में बैंगन तोड़ती हुई गीत गोविन्द के पंचम सर्ग की कथा का यह पद गाती जाती थी –
“न कुरु नितम्बिनी गमन विलम्बन मनु सरतं हृदये शम् ।
धीर समीरे यमुना तीरे वसति बने वनमाली”
(दूती श्री राधिका जी से कहती है कि हे नितम्बिनी ! अब गमन में विलम्ब मत करो; उन प्राण प्रिय के समीप चलो । वे वनमाली वन में यमुना के कूल में धीर समीर कुञ्ज में बसते हैं ।)
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इस पद को सुनते हुये माली की कन्या के पीछे पीछे श्री जगन्नाथ जी अपने शरीर में बहुत बारीक़ अंगरखा पहने हुए फिरते थे । वह जब तान तोड़ती थी तब आप भी प्रेम-पथ की तरंग लगने से झूम के ‘बहुत अच्छा’ कहते थे ।
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जब वह कन्या अपने घर को चली गई तब बैंगन के कांटो से अंगरखा फड़ा के आप दौड़कर मंदिर में आ गये । उसी समय पुरुषोत्तम पुरी का राजा दर्शन करने आया था सो फटे हुये वस्त्र देखकर उसने पण्डा से पूछा – क्योंजी ! श्री जगन्नाथजी के वस्त्र कैसा फटे हैं ? सत्य२ कहो क्या हुआ है ? पण्डा देखकर ताली बजाते हुये बोला – भगवन् ! किसी भक्त के पीछे कांटों में जाकर वस्त्र फड़ा लाये ।
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तब श्री जगन्नाथजी ने कहा – माली की कन्या बैंगनों की बाड़ी में बैंगन तोड़ते हुये गीत-गोविन्द का पंचम सर्ग गाती थी, सो हम वहाँ जा कर बैंगन वन में उसके पीछे पीछे चलते हुये सुनते थे और उस सखी के प्रेम में मस्त हो रहे थे, वस्त्रों का ध्यान ही नहीं था इससे फट गये।
(क्रमशः)

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