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*दादू जैसे मांहि जीव रहै, तैसी आवै बास ।*
*मुख बोले तब जानिये, अन्तर का परकास ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पारिख का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)निष्काम कर्म और श्रीरामकृष्ण । फल-समर्पण और भक्ति*
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मास्टर - प्रफुल्ल के अध्ययन समाप्त करने और बहुत दिनों तक साधना कर चुकने के पश्चात् भवानी पाठक उससे मिलने के लिए आये । अब वे उसे निष्काम कर्म का उपदेश देना चाहते थे । उन्होंने गीता का एक श्लोक कहा –
तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार ।
असक्तो ह्याचरन कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥
अनासक्ति के उन्होंने तीन लक्षण बतलाये –
(१) इन्द्रिय-संयम (२) निरहंकार (३) श्रीकृष्ण के चरणों में फल-समर्पण । निरहंकार के बिना धर्माचरण नहीं होता ।
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गीता में और भी कहा गया है –
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥
इसके पश्चात् श्रीकृष्ण को सब कर्मों का फलार्पण । उन्होंने गीता के श्लोक का उल्लेख किया –
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोसि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
निष्काम कर्म के ये तीन लक्षण कहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा है । गीता की बात है । अकाट्य है । परन्तु एक बात है । श्रीकृष्ण को फलार्पण कर देने के लिए तो कहा, परन्तु उन पर भक्ति करने की बात नहीं कही ।
मास्टर - यहाँ यह बात विशेषतया नहीं कही गयी ।
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फिर धन का व्यय किस तरह करना चाहिए, यह बात हुई । प्रफुल्ल ने कहा, यह सब धन श्रीकृष्ण के लिए मैने समर्पित किया ।
प्रफुल्ल - जब मैंने अपने सब कर्म श्रीकृष्ण को समर्पित किये, तब अपने धन का भी समर्पण मैंने श्रीकृष्ण को ही कर दिया ।
भवानी - सब ?
प्रफुल्ल – सब ।
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भवानी - तो कर्म वास्तव में अनासक्त कर्म न हो सकेगा । अगर तुम्हें अपने भोजन के लिए प्रयत्न करना पड़ा तो इससे आसक्ति होगी । अतएव, सम्भवतः तुम्हे भिक्षावृत्ति के द्वारा भोजन का संग्रह करना होगा या इसी धन से अपनी शरीर-रक्षा के लिए कुछ रखना होगा । भिक्षा में भी आसक्ति है, अतएव तुम्हें इसी धन से अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए ।
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मास्टर - (श्रीरामकृष्ण से) - यह इनका पटवारीपन है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह इनका पटवारीपन है । हिसाबी बुद्धि है । जो ईश्वर को चाहता है, वह एकदम कूद पड़ता है । देह-रक्षा के लिए इतना रहे, यह हिसाब नहीं आता ।
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मास्टर - फिर भवानी ने पूछा, - 'धन लेकर श्रीकृष्ण के लिए समर्पण कैसे करोगी ?' प्रफुल्ल ने कहा, 'श्रीकृष्ण सर्व भूतों में विराजमान हैं । अतएव सर्व भूतों के लिए इसका व्यय करूँगी ।' भवानी ने कहा, 'यह बहुत ही अच्छा है;’ और वे गीता के श्लोक पढ़ने लगे –
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
गीता-अ. ६, श्लोक ३०-३१-३२
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श्रीरामकृष्ण - ये उत्तम भक्त के लक्षण हैं ।
मास्टर पढ़ने लगे ।
“सर्व भूतों को दान करने के लिए बड़े परिश्रम की आवश्यकता है । इसलिए कुछ साज-सजावट, कुछ भोग-विलास की जरूरत है । भवानी पाठक ने इसीलिए कहा, 'कभी कभी कुछ दूकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।”
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श्रीरामकृष्ण - (विरक्ति के भाव से) - 'दुकानदारी की भी आवश्यकता होती है ।' जैसा आकर है, बात भी वैसी ही निकलती है । दिन-रात विषय की चिन्ता, मनुष्यों से धोखेबाजी, यह सब करते हुए बातें भी उसी ढंग की हो जाती हैं । मूली खाने पर मूली की ही डकार आती है । 'दूकानदारी' न कहकर वही बात अच्छे ढंग से भी कही जा सकती थी; वह कह सकता था, 'अपने को अकर्ता समझ कर्ता की तरह कार्य करना ।’
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उस दिन एक आदमी गा रहा था । उस गाने के भीतर लाभ और घाटा, इन्हीं बातों की भरमार थी । मैंने मना किया । आदमी दिन-रात जो चिन्ताएँ किया करता है, मुँह से वही बातें निकलती रहती हैं ।
(क्रमशः)
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