गुरुवार, 30 जून 2022

*सर्व भूतों में ईश्वर*

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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाइ ।*
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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प्रेमोन्माद होने पर सर्व भूतों में ईश्वर का साक्षात्कार होता है । गोपियों ने सर्व भूतों में श्रीकृष्ण के दर्शन किये थे । सब को कृष्णमय देखा, कहा था, 'मैं ही कृष्ण हूँ ।' तब उनकी उन्मादावस्था थी । पेड़ देखकर उन लोगों ने कहा, 'ये तपस्वी हैं, कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं । तृणों को देखकर कहा था, 'श्रीकृष्ण के स्पर्श से पृथ्वी को रोमाञ्च हो रहा है ।’
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"पतिव्रता-धर्म में स्वामी देवता है, और यह होगा भी क्यों नहीं ? मूर्ति की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी की क्यों नहीं होगी ?
"प्रतिमा के आविर्भाव के लिए तीन बातों की जरूरत होती है - पहली बात, पुजारी में भक्ति हो; दूसरी, प्रतिमा सुन्दर हो, तीसरी गृहस्वामी स्वयं भक्त हो । वैष्णवचरण ने कहा था, अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।
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"परन्तु एक बात है - उन्हें बिना देखे इस तरह लीला-दर्शन नहीं होता । साक्षात्कार का लक्षण जानते हो ? देखनेवाले का स्वभाव बालक जैसा हो जाता है । बालस्वभाव क्यों होता है ? इसलिए कि ईश्वर स्वयं बालस्वभाव है । अतएव जिसे उनके दर्शन होते हैं, वह भी उसी स्वभाव का हो जाता है ।
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"यह दर्शन होना चाहिए । अब उनके दर्शन भी कैसे हों ? तीव्र वैराग्य होना चाहिए । ऐसा चाहिए कि कहे - 'क्या तुम जगत्पिता हो, तो मैं क्या संसार से अलग हूँ ? मुझ पर तुम दया न करोगे ? – साला !’
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"जो जिसकी चिन्ता करता है, उसे उसी की सत्ता मिलती है । शिव की पूजा करने पर शिव की सत्ता मिलती है । श्रीरामचन्द्रजी का एक भक्त था । वह दिन-रात हनुमान की चिन्ता किया करता । वह सोचता था, मैं हनुमान हो गया हूँ । अन्त में उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि उसके जरा सी पूँछ भी निकली है ।
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“शिव के अंश से ज्ञान होता है, विष्णु के अंश से भक्ति । जिनमें शिव का अंश है, उनका स्वभाव ज्ञानियों जैसा है, जिनमें विष्णु का अंश है, उनका भक्तों जैसा स्वभाव है ।"
मास्टर - चैतन्यदेव के लिए तो आपने कहा था, उनमें ज्ञान और भक्ति दोनों थे ।
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श्रीरामकृष्ण - (विरक्तिपूर्वक) - उनकी और बात है । वे ईश्वर के अवतार थे । उनमें और जीवों में बड़ा अन्तर है । उन्हें ऐसा वैराग्य था कि सार्वभौम ने जब जीभ पर चीनी डाल दी, तब चीनी हवा में 'फर-फर' करके उड़ गयी, भीगी तक नहीं । वे सदा ही समाधिमग्न रहते थे । कितने बड़े कामजयी थे वे, जीवों के साथ उनकी तुलना कैसे हो ? सिंह बारह वर्ष में एक बार रमण करता है, परन्तु मांस खाता है; चिड़ियाँ दाने चबाती हैं, परन्तु दिन रात रमण करती है ।
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उसी तरह अवतार और जीव है । जीव काम का त्याग तो करते हैं, परन्तु कुछ दिन बाद कभी भोग कर लेते हैं, सँभाल नहीं सकते । (मास्टर से) लज्जा क्यों ? जो पार हो जाता है, वह आदमी को कीड़े के बराबर देखता है । 'लज्जा, घृणा और भय, ये तीन न रहने चाहिए । ये सब पाश हैं । 'अष्ट पाश' है न ?
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“जो नित्यसिद्ध है, उसे संसार का क्या डर ? बँधे घरों का खेल है, पासे फेंकने से कुछ और न पड़ जाय, यह डर उसे फिर नहीं रहता ।
"जो नित्यसिद्ध है, वह चाहे तो संसार में भी रह सकता है । कोई कोई दो तलवारें भी चला सकते हैं - वे ऐसे खिलाड़ी हैं कि कंकड़ फेंककर मारो तो तलवार में लगकर अलग हो जाता है ।"
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भक्त - महाराज, किस अवस्था में ईश्वर के दर्शन होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - बिना सब तरफ से मन को समेटे ईश्वर के दर्शन थोड़े ही होते हैं ? भागवत में शुकदेव की बातें हैं - वे रास्ते पर जा रहे थे - मानो संगीन चढ़ाई हुई हो ! किसी ओर नजर नहीं जाती ! एक लक्ष्य - केवल ईश्वर की ओर दृष्टि, योग यह है ।
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"चातक बस स्वाति का जल पीता है । गंगा, यमुना, गोदावरी सब नदियों में पानी भरा हुआ है, सातों सागर पूर्ण है, फिर भी उनका जल वह नहीं पीता । स्वाति में वर्षा होगी तब वह पानी पीयेगा ।
"जिसका योग इस तरह का हुआ हो, उसे ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।
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थिएटर में जाओ तो जब तक पर्दा नहीं उठता तब तक आदमी बैठे हुए अनेक प्रकार की बातें करते हैं - घर की बातें, आफिस की बातें, स्कूल की बातें, यही सब पर्दा उठा नहीं कि सब बाते बन्द ! जो नाटक हो रहा है, टकटकी लगाये उसे ही देखते हैं । बड़ी देर बाद अगर एक-आध बातें करते भी हैं तो उसी नाटक के सम्बन्ध की ।
"शराबखोर शराब पीने के बाद आनन्द की ही बातें करता है ।”
(क्रमशः)

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