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*दादू दिन दिन भूलै देह गुण, दिन दिन इंद्रिय नाश ।*
*दिन दिन मन मनसा मरै, दिन दिन होइ प्रकाश ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १०७.गिरीश के मकान पर*
*(१)ज्ञान-भक्ति-समन्वय का प्रसंग*
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श्रीरामकृष्ण गिरीश घोष के बसुपाड़ावाले मकान में भक्तों के साथ बैठकर ईश्वर सम्बन्धी वार्तालाप कर रहे हैं । दिन के तीन बजे का समय है । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । आज बुधवार है - फाल्गुन शुक्ला एकादशी - २५ फरवरी १८८५ ई. । पिछले रविवार को दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण का जन्म महोत्सव हो गया है । श्रीरामकृष्ण गिरीश के घर होकर स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखने जायेंगे ।
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श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर पहले ही पधारे हैं । कामकाज समाप्त करके आने में मास्टर को थोड़ा विलम्ब हुआ । उन्होंने आकर ही देखा, श्रीरामकृष्ण उत्साह के साथ ब्रह्मज्ञान और भक्तितत्त्व के समन्वय की चर्चा कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जीव की ये तीन स्थितियाँ होती हैं ।
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"जो लोग ज्ञान का विचार करते हैं वे तीनों स्थितियों को उड़ा देते हैं । वे कहते हैं कि ब्रह्म तीनों स्थितियों से परे है - स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों से परे है; सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणों से परे है । सभी माया है, जैसे दर्पण में परछाई पड़ती है । प्रतिबिम्ब कोई वस्तु नहीं है । ब्रह्म ही वस्तु है, बाकी सब अवस्तु ।
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"ब्रह्मज्ञानी और भी कहते हैं, देहात्मबुद्धि रहने से ही दो दिखते हैं । परछाई भी सत्य प्रतीत होती है । वह बुद्धि लुप्त होने पर 'सोऽहम्' - 'मैं ही वह ब्रह्म हूँ' - यह अनुभूति होती है ।"
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एक भक्त - तो फिर क्या हम सब बुद्धि-विचार का मार्ग ग्रहण करें ?
श्रीरामकृष्ण – विचार-पथ भी है - वेदान्तवादियों का पथ । और एक पथ है भक्तिपथ । भक्त यदि ब्रह्मज्ञान के लिए व्याकुल होकर रोता है, तो वह उसे भी प्राप्त कर लेता है । ज्ञानयोग और भक्तियोग ।
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"दोनों पथों से ब्रह्मज्ञान हो सकता है । कोई कोई ब्रह्मज्ञान के बाद भी भक्ति लेकर रहते हैं - लोकशिक्षा के लिए; जैसे अवतार आदि ।
"देहात्मबुद्धि, ‘मैं’ - बुद्धि आसानी से नहीं जाती । उनकी कृपा से समाधिस्थ होने पर जाती है - निर्विकल्प समाधि, जड़ समाधि ।
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“समाधि के बाद अवतार आदि का 'मैं’ फिर लौट आता है - 'विद्या का मैं', 'भक्त' का ‘मैं’ । इस ‘विद्या के मैं’ से लोकशिक्षा होती है । शंकराचार्य ने ‘विद्या के मैं’ को रखा था ।
"चैतन्यदेव इसी ‘मैं’ द्वारा भक्ति का आस्वादन करते थे, भक्ति-भक्त लेकर रहते थे, ईश्वर की बातें करते थे, नाम संकीर्तन करते थे ।
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" ‘मैं’ तो सरलता से नहीं जाता, इसीलिए भक्त जाग्रत्, स्वप्न आदि स्थितियों को उड़ा नहीं देता । वह सभी स्थितियों को मानता है, सत्व-रज-तम तीन गुण भी मानता है । भक्त देखता है, वे ही चौबीस तत्व बने हुए हैं । जीव-जगत् बने हुए हैं । फिर वह देखता है कि वे साकार चिन्मय रूप में दर्शन देते है ।
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"भक्त विद्यामाया की शरण लेता है । साधुसंग, तीर्थ, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य - इन सब की शरण लेकर रहता है । वह कहता है, यदि 'मैं' सरलता से चला न जाय, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर ।
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"भक्त का भी एकाकार ज्ञान होता है । वह देखता है, ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । स्वप्न की तरह नहीं कहता, परन्तु कहता है, वे ही ये सब बने हुए हैं । मोम के बगीचे में सभी कुछ मोम का है । परन्तु है अनेक रूप में ।
"परन्तु पक्की भक्ति होने पर इस प्रकार बोध होता है । अधिक पित्त जमने पर पीला रोग होता है । तब मनुष्य देखता है कि सभी पीले हैं ।
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श्रीमती राधा ने श्यामसुन्दर का चिन्तन करते करते सभी श्याममय देखा और अपने को भी श्याम समझने लगीं । सीसा यदि अधिक दिन तक पारे के तालाब में रहे तो वह भी पारा बन जाता है । 'कुमुड़' कीड़े को सोचते सोचते झींगुर निश्चल हो जाता है, हिलता नहीं, अन्त में 'कुमुड़' कीड़ा ही बन जाता है । भक्त भी उनका चिन्तन करते करते अहंशून्य बन जाता है । फिर देखता है "वह ही मैं हूँ, मैं ही वह हूँ ।'
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"झींगुर जब 'कुमुड़' कीड़ा बन जाता है, तब सब कुछ हो गया । तभी मुक्ति होती है ।
"जब तक उन्होंने मैं-पन को रखा, तब तक एक भाव का सहारा लेकर उन्हें पुकारना पड़ता है - शान्त, दास्य, वात्सल्य - ये सब ।
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"मैं दासीभाव में एक वर्ष तक था - ब्रह्ममयी की दासी औरतों का कपड़ा, ओढ़ना - यह सब पहना करता था, फिर नथ भी पहनता था । औरतों के भाव में रहने से काम पर विजय प्राप्त होती है ।
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“उस आद्यशक्ति की पूजा करनी होती है, उन्हें प्रसन्न करना होता है । वे ही औरतों का रूप धारण करके वर्तमान हैं; इसीलिए मेरा मातृभाव है ।
"मातृभाव अति शुद्ध भाव है । तन्त्र में वामाचार की बात भी है, परन्तु यह ठीक नहीं, उससे पतन होता है । भोग रखने से ही भय है ।
(क्रमशः)

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