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*काहू तेरा मर्म न जाना रे, सब भये दीवाना रे ॥*
*माया के रस राते माते, जगत भुलाना रे ।*
*को काहू का कह्या न मानै, भये अयाना रे॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश.१०५)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*रूप धरयो भृत१ को हरि आपन२,*
*जीरण कम्बल टूटि पन्हैया ।*
*बाहिर आय रु बूझत है जन,*
*मात पिता नहिं गांव जनैया३ ॥*
*तात न मात न भ्रात न गांव न,*
*चाकर रू४जु स्वभाव मिलैया ।*
*बात अमिल्ल सुनाय कहो सब,*
*खाउं घणों अन नारि रिसैया ॥२५३॥*
भक्त की इच्छा पूर्ण करने के लिये स्वयं२ भगवान् ने ही नौकर१ का रूप धारण किया। आपके पास एक जीर्ण कम्बल और टूटी सी जूतियाँ थीं।
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भक्त के द्वार पर पधारे तब उनको देखकर भक्त बाहर आया और उनसे पूछा- आपके माता पिता नहीं हैं क्या? और आपका जन्म३ का ग्राम कौन सा है ?
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तब आपने कहा मेरे न पिता है न माता है न भ्राता है और न ग्राम ही है। मैं तो मेरा स्वभाव जिससे मिल जाय उसके नौकर रहना४ चाहता हूँ।
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भक्त ने पूछा- आपके साथ स्वभाव नहीं मिलने की क्या बात है? वह सब कहकर मुझे सुनाइये। आपने कहा- मैं अन्न बहुत खाता हूँ। इससे पीसने तथा बनाने वाली नारी मुझ से रुष्ट हो जाती है। यही मेरे स्वभाव न मिलने की मुख्य बात है। अन्य किसी भी काम में मुझ से रुष्ट होने का प्रसंग तो मैं नहीं आने देता हूँ।
(क्रमशः)
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