रविवार, 17 जुलाई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२०

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२०)*
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*२२०. राज विद्याधर ताल*
*देखत ही दिन आइ गये, पलट केश सब श्‍वेत भये ॥टेक॥*
**आई जुरा मीच अरु मरणा, आया काल अबै क्या करणा ।*
*श्रवणों सुरति गई नैन न सूझै, सुधि बुधि नाठी कह्या न बूझै ॥१॥*
*मुख तैं शब्द विकल भई वाणी, जन्म गया सब रैन बिहाणी ।*
*प्राण पुरुष पछतावण लागा, दादू अवसर काहे न जागा ॥२॥*
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भा०दीo-मृत्युः काल: सन्निहितो वर्तते । केशा:श्वेता जाता: । जराऽपि समायाता । मृत्युरपि त्वां भक्षितुं त्वरते । जर्जरिता कायलता । संसाराद्गन्तुं यात्रासमयोऽपि समुपस्थित: । आयुरप्यनारतं गच्छति प्राणापहारैकपरो मृत्युः कमपि न विमुञ्चति । अहो अधुना तु मृत्युस्वीकार एव श्रेयस्करो नान्यः कश्चिदुपायान्तरं शिष्यते । इत्येवं जनो मृत्युकाले जल्पति । बधिरता समायाता । नेत्रशक्तिरपि कुण्ठिता । स्मृतिरपि विलुप्ता, वाक्शक्तिर्विकलिता, शब्दोच्चारणेऽप्यशक्तिर्जाता । आयुरपि समाप्त प्रायम् एवं मानवजन्म व्यर्थमेव व्यतीतमितिजीवात्मा प्राणप्रयाणकाले पश्चात्तापं तनोति । परन्त्वधुनापश्चात्तापने कोलाभः । पूर्वमेव जागरणमपेक्षितमासीत् । त्वदीय: प्रमादस्तवैव दुःखप्रदबन्धन वज्जातः ।
उक्तं हि वासिष्ठे-
अद्यापि यातेऽपि च कल्पनाया आकाशवल्लीफलवन्महत्वे ।
उदेति नो लोभलवाहतानामुदारवृत्तान्तमयी कथैव ॥
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मृत्यु का समय नजदीक ही आ गया है । केश भी सफेद हो गये । बुढ़ापा भी आ गया । मृत्यु भी खाने के लिये जल्दी मचा रही है । यह कायलता भी जीर्ण शीर्ण हो गई है । संसार से जाने के लिये जो यात्रा का समय है वह भी आ गया है । आयु भी जल्दी जल्दी दिन रात पूरी हो रही है । प्राणों को छीनने में लगा हुआ मृत्यु किसी को भी नहीं छोडता ।
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अब तो अन्य कोई उपाय नहीं सूझता, मरने में ही लाभ है । मनुष्य मरण काल में ऐसा विचार करता रहता है । कानों में वहरापन आ गया नेत्रों में देखने की शक्ति भी नहीं रही । स्मृति भी लुप्त हो गई । वाणी में विकलता आ गई शब्द भी नहीं उच्चारण कर सकती ।
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मेरी आयु भी प्रायः समाप्त हो चली । इस प्रकार हाय मैंने मानव जन्म व्यर्थ ही खो दिया । ऐसे विचारों से प्राणी के जाने के समय मानव पश्चाताप करता है । लेकिन अब पछताने से क्या लाभ है, पहले ही जागना चाहिये । मनुष्य का प्रमाद मनुष्य के लिये ही कष्टदायी हो जाता है । अतः सदा सावधान रहना चाहिये ।
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वासिष्ठ में लिखा है कि –
यद्यपि भोगों की आसक्ति का लोभ आकाश की लता के फल के समान अत्यन्त मिथ्या है फिर भी लोभ की विपुलता के कारण वृद्धावस्था आने पर भी अविचार से उसका ही महत्त्व अज्ञानी समझता है । क्योंकि लोभ से जिनकी बुद्धि नष्ट हो गई है ऐसे मनुष्यों के हृदय से सर्वोत्कृष्ट परमात्मा के स्वरूप का निश्चय करने के लिये जरा भी विचार पैदा नहीं होता । निरन्तर ब्रह्म का विचार करना तो उनके लिये असंभव है ।
(क्रमशः)

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