शनिवार, 16 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८५/८८*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८५/८८*
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पावक५ नीर६ समीप हरि, सहजै किया प्रकास ।
परमारथ कौं परगटै, सु कहि जगजीवनदास ॥८५॥
(५. पावक-अग्नि) (६. नीर-जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अग्नि, जल, को समीप रखकर प्रभु ने अपने स्वरूप से प्रकाश किया हे प्रभु आप सदा परोपकार के लिये दर्शन देते हैं ।
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बहिनी७ वारि८ अकास मंहि, एक समीप रहंत ।
कहि जगजीवन रांम गति, कोइ जन भेद लहंत ॥८६॥
(७. बहिनी-वह्रि=अग्नि) (८. वारि-जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अग्नि, जल, आकाश के समीप प्रभु आप रहते हैं उन प्रभु की लीलाओं को कोइ नहीं जान सकता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, को हरि गाजै घोर ।
नीर१ अनल२ के पवन घर, कै अकास मिलि सोर ॥८७॥
(१. नीर-जल) (२. अनल-अग्नि)
संतजगजीवन जी प्रभु का विस्तृत स्वरूप करते हुये कह रहे है कि प्रभु आपका घोर गर्जन यह तो आपके द्वारा किये गये जल अग्नि और वायु आकाश के सम्पर्क में आने का स्वर है ।
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गाजै बरसै अनल चमकै, सब मंहि अबिगत रांम ।
कहि जगजीवन हरि मुक्ति, बिहरै बिहरै नांम ॥८८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि गर्जना बरसना, बिजली का चमकना सब में प्रभु स्वयं हैं । संत कहते हैं कि नाम स्मरण से ही मुक्ति होगी चाहे भांति भांति के नामों से प्रभु को पुकारें ।
(क्रमशः)

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