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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२१)*
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*२२१. उपदेश । राज विद्याधर ताल
*हरि बिन हां, हो कहूँ सचु नांहीं,*
*देखत जाई विषय फल खाहीं ॥टेक॥*
*रस रसना के मीन मन भीरा,*
*जल तैं जाइ यों दहै शरीरा ॥१॥*
*गज के ज्ञान मगन मद माता,*
*अंकुँश डोरि गहै फंद गाता ॥२॥*
*मर्कट मूठी मांहिं मन लागा,*
*दुख की राशि भ्रमै भ्रम भागा ॥३॥*
*दादू देखु हरि सुखदाता,*
*ताको छाड़ि कहाँ मन राता ॥४॥*
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भाव•दी०-रे मनो हरिचिन्तनं विना कुत्राऽपि सुखस्य गन्धोऽपि नास्ति । इत्यं विज्ञायाऽपि त्वं विषयभोगफलान्येव भुक्षे, नैतदुचितम् मीनो रसनारसलोभाज्जलाद् वहिर्निर्गत्य मृत्युमाप्नोति । एवं मानवोऽपि विषयभोगरसास्वादेन संतापं गच्छति । मदोन्मतोगज इन्द्रियस्पर्श -लोभेन रज्जुभिर्वध्यतेऽङ्कशैः सततं पीड्यते तथैव मानवोऽपि स्पर्शसुखलोभेन चान्ते दुःखसागरे पतति । मर्कटोऽपि लोभवशा क्रीडाकरै (वाजीगर) वंध्यते । इतस्ततो भ्रमन् नृत्यति । तथैव मानवोऽपि लोभेन संसारचक्रे परिभ्रमति । न च पारमार्थिकं निजस्वरूपाभिमुखं गच्छति । मुधैव नाना विकल्पजालैः कलयन् सपदि मृत्युमुखेपतति । न च विचारयति । अहन्तु निवृत्तभ्रान्तिर्ह रिसुख मेव वास्तविकं सुखमिति मन्ये । रे मनस्त्वं तु हरिभजनं विहाय कुत्ररन्तु मिच्छसीतिविचारय । किन्तु शीघ्रं हरिं भज । स एव तव शरणमिति भावः ।
उक्तं हि भागवते-
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित:
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानञ्चयद हेतुकम् ।
अनिमित्ता भागवती भक्ति: सिद्धेगरीयसी
जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलोयथा ।
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हे मन ! हरि के चिन्तन को छोड कर अन्यत्र कहीं भी सुख का लव लेश भी नहीं है, ऐसा जानता हुआ भी तू विषय भोग रूप फलों को ही तू खाता है । ऐसा करना तेरे लिये उचित नहीं है । तू देखता नहीं है क्या, मछली रसना के रस के लोभ से जल के बाहर आते ही अपना प्राण त्याग देती है ।
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मनुष्य भी रसना के लोभ से पीडित होता रहता । मदोन्मत हाथी उपस्थ इन्द्रिय के स्पर्श के लोभ से वन में रस्सियों से बांधा जाता है और अंकुश से पीडित रहता है । ऐसे ही मनुष्य भी स्पर्श सुख के कारण अत्यन्त दुःख के सागर में गिर पडता है बन्दर भी लोभ के कारण बंध कर बाजीगर के द्वारा इधर उधर नचाया जाता है ऐसे ही मनुष्य भी लोभ के कारण संसार चक्र में भटकता है ।
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तथा पारमार्थिक सुख की तरफ देखता भी नहीं, व्यर्थ में ही नाना कल्पना जाल में फंस कर मृत्यु के मुख में जा पड़ता है । फिर भी कुछ नहीं सोचता । मेरी तो भ्रान्ति दूर हो गई अतः मैं तो हरि भजन को ही वास्तविक सुख मानता हूं । हे मन तू हरि भजन को छोड कर कहां रम रहा है । अतः कुछ विचार कर शीघ्र हरि भजन में लग जा ।
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श्रीमद्भागवत में लिखा है कि –
भगवान् वासुदेव की भक्ति शीघ्र अहेतुक ज्ञान वैराग्य को पैदा कर देती है । अहेतु की भगवान् की भक्ति सिद्धियों से भी सभी श्रेष्ठ है । जैसे अग्नि सबको निगल जाती है । वैसे ही भक्ति पञ्चकोशों को नष्ट कर देती है ।
(क्रमशः)
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