बुधवार, 20 जुलाई 2022

*तिलोचन की पद्य टीका*

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*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*तिलोचन की पद्य टीका*
*नाम तिलोचन दोय शशी रवि,*
*नाभ बखान करयो जग मांहीं।*
*नाम कथावर पीछ कही हम,*
*दूसर की सुनियो चित लांहीं ॥*
*वंश महाजन के प्रकटे जन,*
*पूजत है तिय गोड१ रहांहीं ।*
*चाकर नांहिं सु संत लखै मन,*
*सेव करै उर में हरखांही ॥२५२॥*
नाभाजी ने कथन किया है कि जगत् में भक्ति रूप नभ के नामदेव और तिलोचन दोनों चन्द्रमा और सूर्य के समान हैं।
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उनमें नामदेवजी की कथा तो मैं-चतुरदास पीछे कह आया हूँ, अब दूसरे तिलोचन भकत की कथा कहता हूँ, चित्त लगा कर सुनिये।
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भक्त तिलोचनजी वैश्य वंश में उत्पन्न हुये थे। आप संतजनों की सेवा-पूजा बहुत श्रद्धा से करते थे किन्तु संतों की सेवा का कार्य करने में पत्नी के पैर१ थक जाते थे अर्थात् वह भक्त की इच्छानुसार नहीं कर पाती थी...
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और ऐसा कोई नौकर भी उनको नहीं मिल रहा था जो संतों के मन की बात जानकर उनकी इच्छानुसार सेवा करके मन में प्रसन्न हो। यह इच्छा भक्त के मन में सदा ही बनी रहती थी। भगवान् तो भक्त कामतरु हैं ही।
(क्रमशः)

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