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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९३/९६*
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अबिगति अलख अगाध हरि, सहजै रच्या अकास ।
पवन अंबु अरु अवनि गुन, सु कहि जगजीवनदास ॥९३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन परमेंश्वर की लीला को कौन जान सकता है ? उन्होंने तो सहज ही इतना विस्तृत आकाश रच डाला है फिर वायु जल धरती सभी गुण देह में भी किये है । उनकी लीला अपरम्पार है ।
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आपणा अपणा किया परि, आप खुसी अबिगत ।
कहि जगजीवन कै कोई, हरिजन हरिरस रत ॥९४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा ने सब अपना जान कर किया जिसमें जीव को भी सम्मिलित किया कि यह भी मेरा है । और यह परमात्मा का आनंद रहा । और फिर कोइ विरला ही प्रभु का बंदा इस आनंद में रत रहा ।
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*सांई ! सकल जहांन की, खबर निरंजन तोहि ।
कहि जगजीवन रोम की, मालिम५ नांही मोहि* ॥९५॥
{५. मालिम-मालूम(=ज्ञात)}
*-*. हे स्वामिन् ! आप समस्त संसार की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सूचनाएँ प्रतिक्षण रखते हैं जब कि मैं इतना मूढ हूँ कि मुझे आपका एक नाम भी स्मरण नहीं रहता ॥९५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है पभु आप तो सारे संसार की हर छोटी बड़ी जानकारी रखते हो और हम तो इतने अज्ञानी है कि हमें तो कुछ ज्ञान नहीं है हम तो आपका नाम, भी स्मरण नहीं रखते हैं ।
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कहि जगजीवन घास मंहि, प्रगट किया हरि नाज ।
अनषड६ करै अगाध हरि, आंम अखै रस राज ॥९६॥
{६. अनखड़-अनक्षत्र(तत्काल, मुहूर्त के विना ही)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु जी ने घास में ही जीवनदायी अन्न उपजा दिया है वे बिना किसी मुहूर्त के ही तत्काल कैसे भी रस कर देते हैं यह ही रहस्य है उनकी सामर्थ्य कोइ नहीं जान सकता है ।
(क्रमशः)

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