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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२२)*
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*२२२. उदीक्षण ताल*
*सांई बिना संतोष न पावै,*
*भावै घर तजि वन वन धावै ॥टेक॥*
*भावै पढ़ि गुनि वेद उचारै,*
*आगम निगम सबै विचारै ॥१॥*
*भावै नव खंड सब फिर आवै,*
*अजहूँ आगै काहे न जावै ॥२॥*
*भावै सब तजि रहै अकेला,*
*भाई बन्धु न काहू मेला ॥३॥*
*दादू देखै सांई सोई,*
*साच बिना संतोष न होई ॥४॥*
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भा०दी०-हे जीव ! त्वं सर्वस्वं हित्वा प्रतिवनं भ्राम्यतु नाम, नहि हरिभजनं बिना संतोषो जायते । वेदान् पठतु शास्त्राणि विचारयतु, भारतस्य नवद्वीपेषु परिभ्रमतु ब्रह्माण्डे वा धावतु । पित्रादि ज्ञातिबान्धवेष्वासक्तो मा भवतु । सर्वस्वं हित्वैकाकी विचरतु । नौ तै: साधनैः प्रभुभक्ति विना किमपि फलं लभ्यते । अहन्तु सत्यस्वरूपं प्रभुमेव सर्वत्र पश्यामि । त्वमपि तथा चर । उक्तं हि वासिष्ठे-तदैव ते संतोषो भविष्यति व्याचष्टे य: पठति च शास्त्रं भोगाय शिल्पिवत् यतते त्वनुष्ठाने ज्ञानवन्धुः स उच्यते । कर्मस्पन्देषु यो बोध: फलितो यस्य न दृश्यते बोधशिल्पोपजीवित्वाज्ञानबन्धुः आत्मज्ञानं विदुर्ज्ञानं ज्ञानान्यन्यानि यानि तु तानि ज्ञानावभासानि सारस्यानवबोधनात् ।
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सब कुछ त्याग कर वन वन में घूमो, लेकिन हरि भजन विना मनुष्य को संतोष प्राप्त नहीं हो सकता । चाहे वेद पढ़ो, वेदों के मंत्रों का उच्चारण सस्वर से करो । शास्त्रों का अध्ययन करो, नौ खण्डों में या ब्रह्माण्ड में कहीं भी भ्रमण करो । चाहे भाई बन्धु माता पिता की आसक्ति को त्याग दो । चाहे सब को त्याग कर एकाकी घूमो ।
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इन सब साधनों से प्रभु भक्ति के बिना कुछ भी फल नहीं मिल सकता । मैं तो सत्यस्वरूप परमात्मा को सर्वत्र देखता हूं । तुम भी ऐसा ही आचरण करो । वासिष्ठ में लिखा है कि – हे राम ! जैसे शिल्पी जीविका के लिये शिल्प कला को सीखता है उसी प्रकार जो मनुष्य केवल भोगों की प्राप्ति के लिये ही शास्त्रों को पढता है तथा उसकी व्याख्या करता है किन्तु स्वयं शास्त्र के अनुसार अनुष्ठान में लगने का प्रयत्न नहीं करता तो वह ज्ञानबन्धु कहलाता है ।
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विचार से देखे तो आत्मज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है अन्य जितने भी ज्ञान हैं वे सब ज्ञान मात्र हैं क्योंकि उनसे तत्त्व का बोध नहीं होता । अतः हरि भजन के द्वारा वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । तब ही जीवन में संतोष प्राप्त होगा ।
(क्रमशः)

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