🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२५)*
===============
२२५. त्रिताल
*इहि कलि हम मरणे को आये, मरण मीत उन संग पठाये ॥टेक॥*
*जब तैं यहु हम मरण विचारा, तब तैं आगम पंथ सँवारा ॥१॥*
*मरण देख हम गर्व न कीन्हा, मरण पठाये सो हम लीन्हा ॥२॥*
*मरणा मीठा लागे मोहि, इहि मरणे मीठा सुख होहि ॥३॥*
*मरणे पहली मरे जो कोई, दादू सो अजरावर होई ॥४॥*
.
भादी०-आस्मिन् युगे यो जायते स प्रियत एव, जातस्य हि ध्रुवं मृत्युरिति नियमात् । अस्मन्मृत्युर्जन्मना सहैवाऽऽयाति । इत्येवं मनसि विचार्य प्रभुप्राप्तिमार्गे तादृशसाधनावलम्बने तस्य प्रवृतिर्जायते अन्यथा तु प्रमाद्यति । अतो मृत्युः सततं विचारणीयः । नाहं कदापि प्रिये इत्यहंकृति: कदापि न भवितव्या किन्तु येन प्रभुणा मृत्युजयाय प्रेषितोऽहमतस्तमेव परमात्मानं महुर्महुः स्मरामि मृत्युप्रियोऽहमत एव प्राणत्यागात्पूर्वमेव जीवन्मुक्तो जातोऽस्मि । जीवन्मुक्तिरति मधुरा मे यतो हि जीवन्मतुक्त: पुरुषो ब्रह्मैव भवति । स देवैरपि गीयते ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे --
रम्ये धनेऽथ दारादौ शोकस्यावसरो हि कः ।
इन्द्रजाले क्षणादृष्टे नष्टे का परिदेवना॥
गन्धर्वनगरस्यार्थे दूषिते भूषिते तथा ।
अविद्यांशे सुतादौ वा कःक्रमः सुखदुःखयोः ॥
रम्ये धनेऽथ धरादौ च हर्षस्यावसरोहि कः ।
वृद्धायां मृगतृष्णायां किमानन्दो जलार्थिनाम् ॥
धनदारेषु वृद्धेषु दखं युक्तं न तुष्टयः ।
वृद्धायां मोहमायायां कः सामश्वासवानिह ॥
यैरेव जायते रागो मूर्खस्याधिकतागतैः ।
तैरेव भोगैः प्राज्ञस्य विराग उपजायते ॥
नष्टे धनेऽथ दारादौ हर्षस्यावसरोहि कः ।
पारावलोकिनस्त्वेतैर्विरागं यान्ति साधवः ॥
जीवन्मुक्ता महात्मानो नित्यतृप्ता महाधियः ।
आचारैरनुगन्तव्या न भोगकृपणा: शठाः ॥
न त्यजन्ति न वान्छन्ति व्यवहारं जगद्गतम् ।
सर्वमेवानुवर्तन्ते पारावारविदोजनाः ॥
.
इस संसार में जो पैदा होता है वह मरने के लिये ही पैदा होता है क्योंकि यह ध्रुव सत्य है कि जो जन्मता है, वह मरता है हमारी मृत्यु तो जन्म के साथ ही पैदा हो जाती है । अतः सभी प्राणी अपनी मृत्यु को साथ ही लेकर आता है । ऐसी विचार धारा जब मानव के अन्तःकरण में पैदा होने लगती है तब वह प्रभु प्राप्ति के मार्ग में चलने लगता है । नहीं तो वह प्रमाद करता रहता है ।
.
इस लिये मृत्यु का सदा विचार करते रहो । मैं कभी नहीं मारूँगा ऐसा अहंकार मेरे मन में कभी नहीं आता प्रत्युत जिस प्रभु ने मेरे को मृत्यु के लिये भेजा है मैं उसी प्रभु को बार बार याद करता हूं । मुझे मृत्यु बड़ी प्यारी लगती है । जिसने मुझे प्राण त्यागने से पहले ही जीवन्मुक्त स्थिति में पहुँचा दिया । जीते हुए मरना बहुत अच्छा है क्योंकि जो जीता हुआ ही मर जाता है वह जीवन्मुक्त होकर ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है ।
.
योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
हे राम ! सुन्दर स्त्री आदि तथा धन के नष्ट होने पर शोक का कौन सा अवसर है । इन्द्र जाल की दृष्टि से देखे गये पदार्थ के नष्ट होने पर क्या कोई विलाप करता है? अविद्या के अंश भूत पुत्र आदि के प्राप्त होने पर सुख तथा नष्ट होने पर दुःख का होना क्या कभी उचित है । रमणीय धन स्त्री आदि की प्राप्ति एवं वृद्धि होने पर हर्ष से फूल उठने का क्या अवसर है ।
.
क्या मृगतृष्णिका जल की वृद्धि होने पर जलार्थी पुरुष को आनन्द प्राप्त होता है ? कदापि नहीं, धन और स्त्री आदि के बढ़ने पर उन्हें परमार्थ में बाधक समझकर दुःख का अनुभव करना चाहिये । संतोष मानना तो कभी उचित नहीं । संसार में मोह माया की वृद्धि होने पर भला कौन सुखी और स्वस्थ रह सकता है । जिन भोगों के बढने से मूढ मनुष्य को राग हो जाता है उन्हीं की वृद्धि से विवेकशील मनुष्य के मन में वैराग्य पैदा होता है ।
.
नश्वर धन और स्त्री आदि के सुलभ होने में हर्ष का क्या कारण है ? जो इनके परिणाम को देख पाते हैं उन साधु पुरुषों को तो इन से वैराग्य ही होता है । जो नित्य तृप्त शुद्ध एवं तीक्ष्ण बुद्धि वाले जीवन्मुक्त महात्मा हैं उन्हीं के आचरणों का अनुसरण करना चाहिये भोग लम्पट दीन हीन शठों के आचरणों का नहीं । पारावार को जानने वाले महात्मा जगत् के व्यवहार को न त्यागते न उसकी इच्छा करते किन्तु अनासक्त भाव से सब कुछ व्यवहार करते रहते हैं । अतः अपनी मृत्यु का विचार अवश्य रखना चाहिये ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें