शनिवार, 2 जुलाई 2022

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ३४*

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*दादू पद जोड़े का पाइये, साखी कहे का होइ ।*
*सत्य शिरोमणि सांइयां, तत्त न चीन्हा सोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग राम गिरी(कली) १, गायन समय प्रातः ३ से ५
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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३४ वाचिका ज्ञानी । त्रिताल
संतों कहे सुने कछु नांही,
जब लग जीव जंजाल१ न छूटै, विकल विषय सुख मांही ॥टेक॥
करै अनीति मगन माया में, कहै अगम की वाणी ।
सो विपरीत संत नहिं मानैं, झूठ माहिली जाणी ॥१॥
बातैं सीख ब्रह्म ह्वै बैठा, निर्भय विषय कमावै२ ।
पूछे से परपंची प्राणी, साखि आगम की ल्यावै ॥२॥
पद साखिन सिध साधक दीसै, इन्द्रियन है अपराधी३ ।
तिहिं घट४ नाम नहीं निज निर्मल, देह दशा नहिं साधी५ ॥३॥
जो कछु करै अजान अज्ञानी, सो समझ सयाना६ ।
जन रज्जब तासौं क्या कहिये, देखत दिवस भुलाना७ ॥४॥३४॥
कहने मात्र के ज्ञानी का व्यवहार बता रहे हैं -
✦ संतों ! कहने सुनने मात्र से ही कुछ नहीं होता । जब तक जीव जम१-जाल से मुक्ति नहीं होती तब तक वह विषय सुख में निमग्न होकर व्याकुल होता रहता है ।
✦ माया में निमग्न होकर अनीति करता है और वचन अगम ब्रह्म संबंधी बोलता है । सो यह बात उसकी विपरीत है - संत इसे श्रेष्ठ नहीं मानते, उसकी भीतर की मिथ्या बात को वे जान जाते हैं ।
✦ ब्रह्मज्ञान की बात सीखकर ब्रह्म बन बैठता है और निर्भय होकर विषयों को भोगता२ है । उससे उसके विपरीत व्यवहार संबंधी प्रश्न पूछें तो तो वह प्रपंची प्राणी अगम ब्रह्म संबंधी साक्षी शास्त्रों से लेकर सुनाता है ।
✦ पद साखियों के उच्चारण से तो सिद्ध तथा साधक दीखता है किंतु इन्द्रियों की दृष्टि से पापी३ होता है उसके अन्त:करण४ में निर्मल निज नाम भी नहीं होता । वह अपने शरीर की चंचलादि अवस्था को भी साधन द्वारा ठीक५ नहीं करता ।
✦ जो कछ अनजान में अज्ञानी करता है, वही वह समझदार ज्ञानी६ करता है । उसे क्या कहैं, वह तो देखते देखते कुछ ही दिनों में दूसरे को भी भ्रम७ में डाल देता है ।
(क्रमशः)

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