सोमवार, 11 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ७७/८०*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ७७/८०*
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कहि जगजीवन रांमजी, वपु क्यूं कीन्ह अगाध ।
क्यूं ए नाद निवास हरि, क्यूं ए सनमुख साध ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं की हे प्रभु क्यों यह देह बनायी और इसे इतना गहन क्यों बना दिया । और क्यों अनहद नाद में परमात्मा का निवास कर सन्मुख साधु जन को रखा जो सहज उपकारी है ।
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सहजैं घर सहजैं गगन, सहज अनल अंबु बाइ ।
कहि जगजीवन अलख गति, क्यूं ही लखी न जाइ ॥७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा का घर सहज है । वहां गगन अग्नि जल वायु पृथ्वी सब सहज है तो फिर जीव उस अगाध प्रभु की सहज लीलाओं को क्यों नहीं समझता है ।
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करै अकरता ब्रह्मगति, सोइ सेवक सोइ दास ।
कहि जगजीवन बंदगी, सतगुरु मांनै तास२ ॥७९॥
(२. तास-उसको । इस साषी में ‘सतगुरु’ के लक्षण बताये हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जब बिना कर्ता भाव दिखाये वह सब ही करे जो प्रभु की लीला या गति है । तो वह जीवात्मा जो प्रभु के अनुकूल चले वह ही सच्चा सेवक व दास है । और प्रभु ऐसे दास की सेवा व बंदगी को ही गिनते हैं । मानते हैं ।
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कहि जगजीवन मैं किया, यों चित आंणै कोइ ।
तौ किया कराया बाद३ सब, रांम न मांनै सोइ ॥८०॥
(३. बाद-निरर्थक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैने जो किया जो इस बात को ही जाने जिसमें कर्ता भाव हो किया हुआ सब व्यर्थ हो जाता है और प्रभु इसे नहीं मानते, प्रभु समर्पण हो जीव स्वयं कर्ता भाव न रखें ।
(क्रमशः)

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