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*दादू खालिक खेलै खेल कर, बूझै बिरला कोइ ।*
*लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*च्यार वस्त्र हु रैसि१ सबै कर,*
*लार२ न चाहत एक कराऊं।*
*संतन सेवत बीत गये तन,*
*नौतम नाहिं सु वर्ष बिताऊं ॥*
*नाम हमार सु अंतरजामि हि,*
*दास तुम्हार सु तोहि धपाऊं३।*
*जूति रु कम्बल नौतम देवत,*
*आप नुहावत मैल छुटाऊं ॥२५४॥*
भक्त ने कहा- मैं वैश्यपूर्ण में हूँ और मेरे सबसे अधिक काम हैं संत सेवा का। यदि आप संतों की सेवा उनकी इच्छा के अनुसार कर सको तो मेरे ही यहाँ रह जाइये। भगवान् बोले- मैं चारों वर्णों के रहस्यमय१ सभी कार्य कर जानता हूँ। किसी को भी कल्याण मार्ग के पीछे पीछे रखना नहीं चाहता। सद्गुरु रूप होकर सदा शिक्षा और साधन द्वारा सबको अपने स्वरूप में मिलाकर एक रूप बना देता हूँ ...
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और संतों की सेवा करते हुये तो मेरे अवतार रूप अनेक शरीर व्यतीत हो गये हैं। संत-सेवा का कार्य मेरे लिये नूतन नहीं है। इस कार्य को तो मैं अच्छी प्रकार करते हुये अनेक वर्ष व्यतीत कर देता हूँ, तो भी नहीं थकता हूँ।
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मेरा नाम अन्तर्यामी है। मैं तुम्हारा नौकर होकर तुम्हें तृप्त३ कर दूँगा। भक्त भगवान् की बात सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ।
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आपको नूतन जूतियाँ पहना दी और कम्बल भी नवीन दे दिये। तथा जिनकी आवश्यकता थी तो सर्व वस्तुयें दे दी गईं। फिर भक्त स्वयं गर्म जल से स्नान कराने लगा तथा बोला- आपके शरीर पर मैल है, आप दृढ़ता से बैठिये मैं इसे उतार देता हूँ।
(क्रमशः)

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