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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०५/१०८*
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कूंण हि जुगति समीप हरि, गरभ मांहि दस मास ।
प्राण पिंड परगट किये, सु कहि जगजीवनदास ॥१०१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सोचिये परमात्मा ने कैसे गर्भ में भी दस माह तक हमको सामिप्य दिया होगा । क्योंकि उनके बिना तो कुछ सम्भव ही नहीं । और कैसे प्राण पिण्ड बनाकर जीव को सिरजा है । वे कितने समर्थ हैं ।
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ए आसंक्या६ ऊपजी, तुझ से बूझै आइ ।
कहि जगजीवन क्रिपा करि, मिलि हरि कहिये ताहि ॥१०२॥
{६. असंक्या=आशंका(सन्देह)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन में एक संदेह है, हे प्रभु उसका निवारण भी आपसे ही पूछते हैं, हे प्रभु आप ही बताये कि आप कैसे मिलोगे ।
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अवनि अंबु अकास थनि, अनल पवन मंहि बास ।
रज बीरज करि घाट रच्या, सु कहि जगजीवनदास ॥१०३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धरती जल आकाश, का आधार हो अग्नि वायु में निवसते हो । और आपने रज वीर्य से देह बना कर इन पांचो को इसमें रख कर इनका आकार बना दिया ।
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जीव ब्रह्म अंतर नहीं, ज्यूं रवि किरण प्रकास ।
नीर निरख धर धीर गहि, सु कहि जगजीवनदास ॥१०४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव व ब्रह्म एक है जैसे सूर्य व सूर्य से निकलने वाली किरण । वे भी जल को देखकर तप्त से शीतल हो जाते हैं ।
(क्रमशः)
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