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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२४)*
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*२२४. काल चेतावनी । ललित ताल*
*रहसी एक उपावनहारा, और चलसी सब संसारा ॥टेक॥*
*चलसी गगन धरणि सब चलसी, चलसी पवन अरु पानी ।*
*चलसी चंद सूर पुनि चलसी, चलसी सबै उपानी ॥१॥*
*चलसी दिवस रैण भी चलसी, चलसी जुग जम वारा ।*
*चलसी काल व्याल पुनि चलसी, चलसी सबै पसारा ॥२॥*
*चलसी स्वर्ग नरक भी चलसी, चलसी भूचणहारा ।*
*चलसी सुख दुःख भी चलसी, चलसी कर्म विचारा ॥३॥*
*चलसी चंचल निहचल रहसी, चलसी जे कुछ कीन्हा ।*
*दादू देख रहै अविनाशी, और सबै घट खीना ॥४॥*
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भा०दी०-कलयत्यवश्यं फलमिति कालः । तेन कालेनाखिला भूतसंतति वैधुर्यं नीता । स एवाचार्य: श्रीदादूदेव: प्रतिपादयति रहसी एकेतिपद्येन । सृष्टिकर्ता परमात्मैवैकोऽविनाशी, अन्यत्तु सर्वं विनाशि । आकाशं पृथिवी पवनो जलं सूर्याचन्द्रमसौ नक्तंदिवम् युगानि, यमो व्यालरूपो भावा न तारका मृत्युः स्वर्गनरको तत्रत्या सुखदुःखभोक्तारः प्राणिनः सुख दुखे प्राणिनामदृष्टं (पापपुण्ये) शुभाशुभकर्माणि सर्वाव्यपिकाले विलीयन्ते केवलं प्रभुरेव शाश्वतस्तिष्ठति । अचलोऽयं सनातनः इतिगीतोक्तः । अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वामिदं ततम् । अविनाशि वारे अयमात्मा इत्यादि श्रुतिस्मृतिभिब्रह्मेव केवलं शाश्वतं सिद्धयति ।
वासिष्ठेऽप्युक्तम्-
आगमापायिनो भावा भावनाभवबन्धनी
नीयते केवलं क्वाऽपि नित्यं भूतपरम्परा ।
दिशोऽपि हि न दृश्यन्ते देशोऽप्यन्यापदेशभाक् ।
शैला अपि विशीर्यन्ते कैवास्था मादृशे जने ।
अद्यते सत्तयाऽपि द्यौर्भुवनं चापि भुज्यते ।
धराऽपि याति वैधुर्यं क्वैवास्था मादृशे जने ।
शुष्यन्त्यपि समुद्राश्च शीर्यन्ते तारका अपि
सिद्धा अपि विनश्यन्ति क्वैवास्थामादृशे जने ।
दानवा अपि दीर्यन्ते ध्रुवोऽप्यधुवजीवित:
अमरा अपि मार्यन्ते क्वैवास्था मादृशे जने ।
सोमोऽपि व्योमतां याति मार्तण्डो इऽप्येतिखण्डताम्
भग्नतामग्निरप्येति क्वैवास्था मादृशे जने
परमेष्ट्यपि निष्ठावान् हियते हरिरष्यजः
भवोऽप्यभावमायाति क्वैवास्था मादृशे जने ।
कालः संकाल्यते येन नियतिश्चापि नीयते
खमप्यालीयतेऽनन्तं क्वैवास्थामादृशे जने ।
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जो क्रिया के द्वारा प्राणियों को दण्ड रूप से फल देता है वह ही काल है । उस काल ने संपूर्ण प्राणियों को नष्ट कर डाला । इसी भाव को श्री आचार्य दादू जी महाराज बतला रहे हैं ।
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सृष्टि का बनाने वाला परमात्मा ही एक अविनाशी है शेष तो सभी विनाशशील हैं । जैसे आकाश पृथ्वी वायु जल चन्द्र सूर्य दिन रात युग यम सर्प रूपी मृत्यु स्वर्ग नरक तथा उनको भोगने वाले प्राणि सुख दुःख प्राणियों का अदृष्ट शुभ अशुभ कर्म यह सब जब काल आ जाता है तब नष्ट हो जाते हैं । केवल प्रभु ही अविनाशी होने से शाश्वत रहते हैं । यह ब्रह्म अचल सनातन है जिससे सारा संसार व्याप्त है, वह ब्रह्म ही अविनाशी है । इत्यादि श्रुति स्मृतियों से ब्रह्म ही शाश्वत सिद्ध होता है ।
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योगवासिष्ठ में कहा है कि –
संपूर्ण पदार्थ उत्पन्न और विनाशशील है । वासना संसार में बांधने वाली है । यह काल प्राणियों को नित्य ही कहीं अज्ञात स्थान में लिये जाता है । दिशायें भी नहीं दिखाई देती, देश भी विदेश सा हो जाता है । पर्वत भी बिखर कर ढह जाते हैं । सत्ता मात्र ही जिसकी स्वरूप है वह काल आकाश को भी खा जाता है ।
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चौदह भुवनो को भी अपना ग्रास बना लेता है । पृथ्वी भी विनाश को प्राप्त हो जाती है । ध्युलोक त्रिभुवन भी नष्ट हो जाते हैं । काल वश समुद्र भी सूख जाता है । तारे भी टूट कर बिखर जाते हैं । सिद्ध भी नष्ट हो जाते हैं । फिर मेरे जैसे मनुष्य की स्थिरता में कैसे विश्वास हो । बडे बड़े दानव भी विदीर्ण हो जाते हैं । ध्रुव भी अध्रुव जीवी बन जाता है । अमर भी मरण को प्राप्त हो जाते हैं ।
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काल अपने अगणित मुखों से इन्द्र को भी चबा जाता है । यमराज को भी वश में कर लेता है । उसके प्रभाव से वायु भी अवायु बन जाती है । अर्थात् अपना अस्तित्व खो बैठता है । चन्द्रमा भी काल वश आकाश में लीन हो जाता है । सूर्य के भी खण्ड खण्ड हो जाते हैं । अग्नि भी भंग हो जाती है । जो काल मृत्यु को भी कवलित कर लेता है, नियति को भी टाल देता है । अनन्त आकाश को भी अपने में लीन कर लेता है । परमेष्ठ लोक को तथा हरि हर को जो अज कहलाते हैं उनको भी नष्ट कर देता है । अतः जो काल का भी महाकाल परब्रह्म परमात्मा है वह ही अविनाशी है ।
(क्रमशः)

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