रविवार, 3 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६५/६८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६५/६८*
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कुदरत१० अलख अगाध की, थकित भया जन देखि ।
कहि जगजीवन अंबु११ मंहि, क्यूं रस रूप विसेखि१२ ॥६५॥
(१०. कुदरत-सामर्थ्य या कारीगरी) (११. अंबु-जलबिन्दु)
{१२. विसेखि-विशेष(असाधारण)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन अलख अगाध प्रभु की सामर्थ्य देख कर जीव विस्मित है । उन्होंने एक बूंद से उत्पन्न इस जीव को रंग रुप से सजा कर कैसे असाधारण बना दिया है ।
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रांम दिलावै रांम दे, देकर ले सो रांम ।
कहि जगजीवन नांम भजि, प्रांण लहै ते ठांम ॥६६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम ही दिलवाते हैं, देकर लेते भी वे ही है । अतः है जीव उनकी शरण में जाने के लिये स्मरण कर ।
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अंतरजामी रांमजी, घट घट बोलै साखि ।
खी जगजीवन नांव ले, हरिजन हरी रस चाखि ॥६७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे प्रभु अन्तर्यामी है जिसकी साक्षी स्वरूप हर ह्रदय से जो आवाज आती है या वाणी उच्चारण होता हे यह प्रमाण है । अतः सच्चा आनंद रस लेना है तो उनका ही स्मरण करें ।
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रांम प्रमारथ१ परम गति, एक सुक्रित२ सब ठांम ।
कहि जगजीवन नांद सुण, निमष३ न भूलै नांम ॥६८॥
{१. प्रमारथ-परमार्थ(अन्तिम लक्ष्य)} {२. सुक्रित-सुकृत(=सत्कर्म)} (३. निमष- एक क्षण भी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम जी ने एक सबसे बड़ा परोपकार जीव पर जो किया है वह है कि जीव अनहद सुन कर एक क्षण भी उनको विस्मृत न करे यह.ही परम गति देता है ।
(क्रमशः)

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