मंगलवार, 5 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६९/७२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६९/७२*
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कहि जगजीवन रांमजी, एक तुम्हारी आस ।
यहु व्रत चित मैं बसि रहै, प्रेम भगति रस प्यास ॥६९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी जीवन में जो आशा है वह आपसे ही है । और यह व्रत या निश्चय मन में बसा रहे और आपके प्रेम व भक्ति की चाह सदा बनी रहै ।
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सेज४ बिराजै रांमजी, पहला५ दुख सब जाइ ।
कहि जगजीवन नूर मंहि, नख सिख रहै समाइ ॥७०॥
(४. सेज-ह्रदयकमल रूप आसन)    (५. पहला-पूर्व कृत कर्म का) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि मन के आसन पर प्रभु विराजते हों तो सब पूर्व जन्म के सुख दुख मिट जाते हैं । और उन के तेजोमय स्वरूप में सब समाया रहता है ।
सुमिरण सबका भला कूं६, कहा आप पर प्रांण ।
कहि जगजीवन एहि ए, हरिजन जांणै जांण ॥७१॥
(६. भला कूं-सब के हित के लिये)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने सबके हित के लिये स्मरण बताया है जिससे जीव के प्राण का उद्धार हो । और ये बात अन्तर्यामी प्रभु स्वंय जानते हैं ।
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पंच तत्त धरि ले उडे, सहज गगन मंहि बास ।
सुन्नि प्रकास सदा रहै, सु कहि जगजीवनदास ॥७२॥  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा पांचो तत्त्वों सहित ही जब सहज होता है तो वह आकाश की ऊंचाई तक पहुंच जाता है । उसके यश की सुवास सर्वत्र फैलती है । और शून्य जिसमें एक ब्रह्म तत्त्व ही है से प्रकाशित होता है । ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)

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