बुधवार, 6 जुलाई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१६

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२१६)*
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*२१६. परिचय चतुस्ताल*
*पीव घर आवनो ए, अहो ! मोहि भावनो ते ॥टेक॥*
*मोहन नीको री हरी, देखूंगी अँखियाँ भरी ।*
*राखूं हौं उर धरी प्रीति करी खरी, मोहन मेरो री माई ।*
*रहूँ हौं चरणौं धाई, आनन्द बधाई, हरि के गुण गाई ॥१॥*
*दादू रे चरण गहिये, जाइने तिहाँतो रहिये ।*
*तन मन सुख लहिये, विनती गहिये ॥२॥*
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भान्दी०-हे महात्मन्! प्रियतमस्य प्रभोगुहागमनमत्यन्तं हर्षप्रदं स:प्रभुर्मेऽतिप्रियोऽस्ति । यथेष्टं नेत्राभ्यामहं तं पश्यामि । हेमात: ? स विश्वविमोहको हरिः सुन्दरातिसुन्दरः । स मोहनो भगवान् ममैकमात्रमस्ति । तेन सह मे सत्य: स्नेहोऽस्ति । तं हृदये धारयामि अहं साधनैस्तच्चरणारविन्दमाश्रित्य तत्रैव निवसामि । श्रीहरेर्यशोगानं गायामि तदैव मे भूयोभूय आनन्दो भविष्यति । हे सखि ! अधुनात्वहं तत्समीपे गत्वा तच्चरणारविन्दमाश्रयामि । अवश्यं मे स: प्रार्थनामङ्गीकरिष्यति । तदाऽहमानन्दसागरे निमडक्ष्यामि । अन्यथा तु मे नेत्रद्वयमिदं व्यर्थमेव भवेत् ।
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उक्तं हि भक्तिरसायनामृतसिन्धौ-
तनूरुहाली च तनुश्च नृत्यं तनोति मे नाम निशम्य यस्य ।
अपश्यतो माथुरमण्डलं तद् व्यर्थेन किं हन्त दृशोर्द्वयेन ।
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हे महात्मन् ! प्रियतम प्रभु का मेरे घर में आना मेरे लिये बहुत ही हर्षप्रद है । वह प्रभु मुझे बहुत ही प्रिय लगता है । उसको मैं नेत्र भर कर देखूंगी । हे भाई ! वह विश्व को मोहित करने वाला प्रभु सुन्दर से भी अति सुन्दर है । वह मोहन मेरा है । उसके साथ मेरा सच्चा स्नेह है । उसको हृदय में ही धारण करूँगी ।
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मैं साधनों के द्वारा उसके चरण कमलों में जाकर वहां ही निवास करूँगी । जब श्री हरि का यश गाऊंगी तब मुझे बहुत बहुत आनन्द आएगा । हे सखि ! अब तो मैं उसके पास जाकर उसके चरणों का सहारा लूंगी । अवश्य ही वह प्रभु मेरी प्रार्थना को स्वीकार करेंगे उस समय मैं आनन्द के सागर में डूब जाऊँगी, नहीं तो उनके दर्शनों के बिना मेरे नेत्र व्यर्थ ही है ।
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भक्तिरसामृतसिन्धु में लिखा है कि –
जिसके नाम को सुनकर ही मेरा शरीर तथा रोम रोम नाचने लगते हैं उस मथुरामण्डल को न देखने वाले इन दोनों नेत्रों का होना व्यर्थ ही है ।
(क्रमशः)

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