शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९७/१००*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९७/१००*
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कहि जगजीवन रांमजी, सकल करै सब जांण ।
सेवक सरण सुखी रहै, हरि दरगह१ दीवान ॥९७॥
(१. दरगह -मन्दिर या मस्जिद के दरवाजे की देहली)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब कुछ जानते हैं व करते हैं । सेवक जन उनकी शरण में सुखी रहते हैं । व उनके दर पर ही उनके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
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सकल पसारा२ आप करि, रह्या अलहदा३ होइ ।
कहि जगजीवन धुर धणी, ताहि न चीन्हैं कोइ ॥९८॥
(२. पसारा-जगत्सृष्टि-विस्तार) (३. अलहदा-पृथक्)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब कुछ रचकर पूरी सृष्टि की रचना कर प्रभु सबसे पृथक भी है । वे बिल्कुल आरम्भ से ही हैं ऐसी बात को कोइ नहीं जानता है ।
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धरणीधर सिर पर धणी, अविगत बंधै धार ।
कहि जगजीवन कसीस मरि, बजर तेग४ खग५ धार ॥९९॥
(४. तेग-दुधारी तलवार) {५. खग-खड्ग(साधारण तलवार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे रक्षक हमारे प्रभु हैं वे सदा रक्षा करते रहते हैं । फिर हम चाहे कितनी ही तीखी चाहे दुधारी ही तलवार क्यों न हो कैसे मर सकते हैं चाहे कितना ही वज्र क्यों न हो क्योंकि हमारे रक्षक तो प्रभु हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हम थैं अगम अगाध ।
तुम थैं सुगम सबल है, संगति आये साध ॥१००॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी हमारे लिये सब कठिन है और आपके लिये सब सरल है । यह जानकर ही साधुजन आपकी शरण में आये हैं ।
(क्रमशः)

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