🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*एक देश हम देखिया, जहँ ऋतु नहीं पलटै कोइ ।*
*हम दादू उस देश के, जहँ सदा एक रस होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
*(४)गिरीश आदि भक्तों के साथ प्रेमानन्द में*
.
सायंकाल हुआ । धीरे धीरे मन्दिर में आरती का शब्द सुनायी देने लगा । आज फाल्गुन की शुक्ला अष्टमी तिथि; छः-सात दिनों के बाद पूर्णिमा के दिन होली महोत्सव होगा ।
.
देवमन्दिर का शिखर, प्रांगण, बगीचा, वृक्षों के ऊपर के भाग चन्द्रकिरण में मनोहर रूप धारण किये हुए हैं । गंगाजी इस समय उत्तर की ओर बह रही है, चाँदनी में चमक रही हैं, मानो आनन्द से मन्दिर के किनारे से उत्तर की ओर प्रवाहित हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरें में छोटे तखत पर बैठकर चुपचाप जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं ।
.
उत्सव के बाद अभी तक दो-एक भक्त रह गये हैं । नरेन्द्र पहले ही चले गये ।
आरती समाप्त हुई । श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे पर धीरे धीरे टहल रहे हैं । मास्टर भी वहीं खड़े खड़े श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक मास्टर को सम्बोधित कर कह रहे हैं, "अहा, नरेन्द्र का क्या ही गाना है !”
.
मास्टर - जी, 'घने अन्धकार में’, वह गाना !
श्रीरामकृष्ण – हाँ, उस गाने का बहुत गम्भीर अर्थ है । मेरे मन को मानो अभी खींचकर रखा है ।
मास्टर – जी, हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - अन्धकार में ध्यान, यह तन्त्र का मत है । उस समय सूर्य का आलोक कहाँ है ?
.
श्री गिरीश घोष आकर खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं ।
(भावार्थ) - "ओ रे ! क्या मेरी माँ काली है ? ओ रे ! कालरूपी दिगम्बरी हृतपद्म को आलोकित करती है ।"
श्रीरामकृष्ण मतवाले होकर खड़े खड़े गिरीश के शरीर पर हाथ रखकर गाना गा रहे हैं –
.
(भावार्थ) - “गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि कौन चाहता है । ..."
(भावार्थ) - "इस बार मैंने अच्छा सोचा है । अच्छे भाववाले से भाव सीखा है । माँ, जिस देश में रात्रि नहीं है, उस देश का एक आदमी पाया हूँ; क्या दिन और क्या सन्ध्या - सन्ध्या को भी मैंने वन्ध्या बना डाली है । नूपुर में ताल मिलाकर उस ताल का एक गाना सीखा है; वह ताल ‘ताध्रिम ताध्रिम' रव से बज रहा है ।
.
मेरी नींद खुल गयी है, क्या मैं फिर सो सकता हूँ ? मैं याग-योग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा तुझे देकर मैने नींद को सुला दिया है । प्रसाद कहता है, मैंने भुक्ति और मुक्ति इन दोनों को सिर पर रखा है । काली ही ब्रह्म है इस मर्म को जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों को त्याग दिया है ।"
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें