शनिवार, 30 जुलाई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२६

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२६)*
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*२२६. त्रिताल*
*रे मन मरणे कहा डराई,*
*आगे पीछे मरणा रे भाई ॥टेक॥*
*जे कुछ आवै थिर न रहाई,*
*देखत सबै चल्या जग जाई ॥१॥*
*पीर पैगम्बर किया पयाना,*
*सेख मुसायक सबै समाना ॥२॥*
*ब्रह्मा विष्णु महेश महाबलि,*
*मोटे मुनि जन गये सबै चलि ॥३॥*
*निहचल सदा सोई मन लाइ,*
*दादू हर्ष राम गुण गाइ ॥४॥*
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भा०दी०-हे बाल: ! मृत्योः किं विभेषि ततो भीतं मृत्युः किं विमुञ्चति । यतः सर्वैरपि मर्तव्यमनुक्रमेण । क्षणभकरेऽस्मिन् संसारे न कोऽपि स्थिरीभवति । सर्वेषां पश्यतामेव जगदिदं कालवशिभवति ।
ये धर्मप्रचारका: पीरपैगम्बरमुल्लाशेखप्रभृतयः सन्ति तेऽपि सर्वे कालमुखे प्रविष्टा इति किं त्वं न पश्यसि । महाबलवन्तो ब्रह्मविष्णुहरादयोऽपि कालमुखान्न मुच्यन्ते तदा संसारिणां का कथा ते तु सततं कालमुखे पतिता एव । अतो हे मनो! य: सदा शाश्वतमविनाशी तिष्ठति तमेव परमात्मानं प्रेम्णा भज । तस्यैव गुणकीर्तनं कुरु ।
उक्तं हि वासिष्ठे-
ये रम्या ये शुभारम्भाः शुभारम्भाः सुमेरुगुरवोऽपि ये ।
कालेन विनिगीर्णास्ते गरुडेनेव पन्नगः ॥
काल:
याता गता
प्रयाता
का
जगतः
निर्दय: कठिन: क्रूरः कर्कश: कृपणोऽधमः ।
न तदस्ति यदद्यऽपि न कालो निगिरत्ययम्॥
अनन्तैरपि लोकौधै यं तृप्तो महाशनः ।
कालः कवलनैकान्तमतिरत्ति निगरन्नपि ॥
जीवन्मुक्तविवेके-
काट्यो ब्रह्मणां याता गता सर्गपरम्परा
प्रयाता पांशुवयूपाःका धृतिर्ममजीविते ।
येषां निमेषणोन्मेषौ जगतः प्रलयोदयौ
तादृशाः पुरुषा नष्टा मादृशां गणनैवका॥
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हे अज्ञानी ! तू मृत्यु से क्यों डरता है, क्या डरने वाले को मृत्यु छोड देगी ? कभी नहीं । एक दिन सभी को क्रम से मरना है । इस नश्वर संसार में कोई स्थिर नहीं रहता । सभी के देखते देखते यह जगत् काल के मुख में चला जा रहा है । जो धर्म प्रचारक पीर पैगम्बर शेख मुल्ला हैं वे सभी काल के वश हुए उसके मुख में चले गये ।
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क्या तू यह नहीं देख रहा है जो महा बलवान् ब्रह्मा विष्णु महेश्वर आदि देवता हैं वे भी जब काल के मुख से नहीं बचे तो फिर संसार की कथा ही क्या है? क्योंकि वह तो बराबर काल के मुख में ही पडा है । इसलिये हे मन ! जो सदा शाश्वत रहता है उस अविनाशी परमात्मा को भज । और उसी के गुण गान कर ।
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योगवासिष्ठ में कहा है कि –
जो संसार में रमणीय कर्म करने वाले तथा गौरव में सुमेरु के भी गुरु थे उन सब को काल ने इसी तरह निगल लिया जैसे गरुड सर्पों को निगल जाता है । यह काल बड़ा ही निर्दयी कठोर क्रूर कर्कश कृपण और अधम है । संसार में सब तक ऐसी वस्तु नहीं हुई कि जिसे यह काल उदस्थ न कर ले । इस काल का विचार सदा निगल ने का ही रहता है और यह सब को निगलता हुआ कभी तृप्त नहीं होता । अब तक इसके उदर में असंख्य लोग चले गये हैं उनको पकड पकड कर मारता रहता है, खाता रहता है, तृप्त नहीं होता ।
(क्रमशः)

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