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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०९/११२*
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कहि जगजीवन रांमजी, पूत पिता पै पाइ ।
ए आसंक्या जीव रहै, सम्रथ कहिये आइ ॥१०९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पुत्र सब कुछ पिता से ही प्राप्त करता है । फिर जीव इस विषय में संदेह क्यों करता है वह भी सब कुछ अपने परमेश्वर पिता से ही पाता है । आप आकर इसे भलीभांति समझावें प्रभु जी ।
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क्यों ए जन्मैं क्यों ए मरैं, क्यों ए आवैं जांहि ।
क्यों ए अहार व्यौहार हरि, क्यों ए भूखे खांहि ॥११०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव का आवागमन व आहार व्यवहार क्यों होता है आप समझाकर कहैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हम सौं कहिये मांहि ।
अनंत कोटि ब्रह्मांड मंहि, तुम समान कोइ नांहि ॥१११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु अनंत करोड़ ब्रह्मांड में आप जैसा कोइ नहीं है । यह बात हम अपनी अंतरगति से कहते हैं ।
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जनम जुगल अंबु१ दार मधि२, पोखत वृधि३ संजोग ।
कहि जगजीवन नारि नर, ए भ्रम भूलै भोग ॥११२॥
(१. जुगल अंबु-रज एवं वीर्य का संयोग) (२. दारमधि-स्त्री के गर्भ में) (३. वृधि-वृद्धि)
संतजगजीवन जी कहते हैं स्त्री पुरुष के संयोग से स्त्री के गर्भ में भी वे समर्थ प्रभु पोषण करते हैं । और जीव भ्रम वश कहता है कि यह स्त्री पुरुष से पोषित है जबकि पोषण कर्ता प्रभु हैं ।
(क्रमशः)
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