शनिवार, 23 जुलाई 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२३

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२३)*
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*२२३. मनोपदेश चेतावनी । उदीक्षण ताल*
*मन माया रातो भूले ।*
*मेरी मेरी कर कर बौरे, कहा मुग्ध नर फूले ॥टेक॥*
*माया कारण मूल गँवावै, समझ देख मन मेरा ।*
*अंत काल जब आइ पहूँता, कोई नहीं तब तेरा ॥१॥*
*मेरी मेरी कर नर जाणै, मन मेरी कर रहिया ।*
*तब यहु मेरी काम न आवै, प्राण पुरुष जब गहिया ॥२॥*
*राव रंक सब राजा राणा, सबहिन को बोरावै ।*
*छत्रपति भूपति तिन के संग, चलती बेर न आवै ॥३॥*
*चेत विचार जान जिय अपने, माया संग न जाई ।*
*दादू हरि भज समझ सयाना, रहो राम ल्यौ लाई ॥४॥*
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भा०दी०-रे मूढमनो ! मायाऽनुरक्तं त्वं किमर्थं श्रीभगवन्तं विस्मरसि नूनं सा कष्टदा परिमोहायैव भवति । ये प्रज्ञाः शूराःकोमलप्रकृतयस्तेऽपि मायया मलिनीकृता भवन्ति । माया न सुखाय दुःखायैव वर्धते । अतस्तवममेति कृत्वा मा मोहं गच्छ, सांसारिकेषु विषयेषु: मायायै मूलधनं जीवनं किमर्थ मर्पयसि । किञ्चिद्विचारय किं करोषि त्वम् । प्राणान्ते ममत्वविषयेषु स्त्रीपुत्रधनादिषु मध्ये त्वया सह किमपि न गच्छति । अतो मोहमायां त्यज । यदा च मृत्युग्रस्तो भविष्यसि तदा तव ममेति भाव स्तद् विषया: स्त्रीपुत्रादयश्च न त्वां रक्षिष्यन्ति । ये धराधिपतयो राजानो धनाढयास्तथा दरिद्राः कृतधियः प्राज्ञास्तान् सर्वानपि माया मुग्धान् विदधाति । न च केनाऽपि सह सा गच्छति । इहैव तिष्ठति । सर्वापदामास्पदा चंचला दुःखरूपा, मतिमलिना परमार्थविरोधिनी मायां परिहत्य सुखी भव । हरिभजनञ्च कुरु येन ते सद्गति भवेत् ।
उक्तंञ्च वसिष्ठे-
मनोरमा कर्षति चित्तवृति कदर्थसाध्या क्षणभङ्गुरा च ।
व्यालावलीगात्रविवृत्तदेहा श्वश्रोत्थिता पुष्पलतेव लक्ष्मीः ॥
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हे मूढ मन ! माया में अनुराग करके परमात्मा को क्यों भूल रहा है । निश्चित ही यह माया पतन मरण रूप कुत्सित अर्थों को देने वाली है । केवल मोह के लिये ही है । जो बुद्धिमान शूर वीर तथा कोमल प्रकृति वाले पुरुष हैं, वे भी माया से मलिन बुद्धि वाले बन जाते हैं । माया सुख देने के लिये नहीं अपितु दुःख देने के लिये ही बढ़ती है इसलिये मैं – मैं करके इन सांसारिक विषयों में मोहित मत हो ।
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तू केवल माया के लिये मूल धन ज्ञान या जीवन को किसलिये नष्ट कर रहा है । कुछ विचार तो सही कि मैं क्या कर रहा हूँ । प्राणों के जाते समय यह ममता और ममता के विषय स्त्री पुत्र धन आदि इन में से तेरे साथ एक भी नहीं जायेगा । अतः मोह माया को त्याग दे । मृत्यु के समय यह तेरा मम भाव और स्त्री पुत्रादि तेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे ।
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यह माया पृथिवी के अधिपति राजाओं को दरिद्र तथा धनवानों को एवं निर्मल बुद्धि वाले विद्वानों को भी दरिद्र तथा धनवानों को एवं निर्मल बुद्धि वाले विद्वानों को भी पागल बना देती हैं । किसी के भी साथ नहीं जाती किन्तु यहां ही रह जाती है । यह माया सब आपत्तियों का घर है और चंचल दुःख देने वाली अति मलिन है, तू इस को त्याग दे, जिससे तेरी सद्गति हो जाय ।
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योगवासिष्ठ में –
यह माया बडी ही सुन्दर तथा चित्तवृत्ति को आकर्षित करने वाली है बडे साहस और कष्ट प्रयत्नों से प्राप्त होने वाली क्षणभंगुर है । जीर्ण कूप गढ्ढे में उत्पन्न होने वाली पुष्प लता के समान है । जिस लता को चारों तरफ से सर्पों ने घेर रखा है ।
(क्रमशः)

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