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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.२२७)*
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*२२७. वस्तु निर्देश निर्णय । मल्लिका मोद ताल*
*ऐसा तत्त्व अनुपम भाई,*
*मरै न जीवै, काल न खाई ॥टेक॥*
*पावक जरै न मार्यो मरई,*
*काट्यो कटै न टार्यो टरई ॥१॥*
*आखिर खिरै न लागै काई,*
*सीत घाम जल डूब न जाई ॥२॥*
*माटी मिलै न गगन विलाई,*
*अघट एक रस रह्या समाई ॥३॥*
*ऐसा तत्त्व अनुपम कहिये,*
*सो गहि दादू काहे न रहिये ॥४॥*
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भा०दी०-ईदृशमनुषयं ब्रह्मतत्वं यन्न जायते प्रियते च । न च कालग्रस्तं भवति अविक्रियत्वात् । किश्श ब्रह्मणो देहादीनामभिन्ननिमित्तोपादनत्वेनापि हननक्रियाया कर्तृत्वं कर्मत्वं च न संभवति, वेदान्तिभिस्तत्र विवर्तवादाभ्युपगात् । न चाध्यस्तधरधिष्ठाने ब्रह्मणि कश्चित् विकारो दृश्यते । विवृत्तञ्च तद् वृद्धैः- नहि भूमिरुधरवती मृगतृष्णाजलवाहिनी सरितमुद्वहति ।
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न मृगवारिपूर्णा नदी तथोषरभूमिंस्पृशति । तथा नैतद् ब्रह्म पावको दहति । न च आए: क्लेदयन्ति । कालोऽपितद्ब्रह्म हन्तुं न शक्नोति न च शस्त्राणि छिन्दन्ति । निरवयवत्वान् । न च तद् ब्रह्मपर्वतादिभिः प्रतिहतंभवति निराकारत्वात् । न क्षरति । अक्षरत्वात् न च शीतोष्णादयः स्पृशन्ति न च जले निमज्जति । न च मृदि लीयते । अगन्धवत्वात् । न च वियति विलीयते अशब्दत्वात् । उक्तञ्चोपनिषदि-अशब्दमस्पर्शमरूपमव्यं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्चयत् । तदेव ब्रह्मतत्त्वं स्वाभेदेन
साधकैरुपासनीयम् ।
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उक्तं च गीतासु-
न जायते प्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यशाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमानेशरीरे ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
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हिन्दी :: ब्रह्म तत्व ऐसा अनुपम है कि न वह जन्मता, मरता, न कालग्रस्त होता, अविक्रिय निर्विकार होने से । यद्यपि ब्रह्म जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादनकारण है एतावता इसमें जगत्कर्तुत्व कर्मत्व प्राप्त होता है तथापि वेदान्तवादियों ने विवर्तवाद माना है अत: जगत् ब्रह्म से भिन्न है ही नही, जैसे घड़ा मिट्टी स्वरूप ही है उससे भिन्न नहीं । अध्यस्त का जन्म ही नहीं तो फिर उसकी सत्ता कैसी?
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उक्तं हि उपरोक्षानुभूतौ-
उपादानं प्रपञ्चस्य मृद्भाण्डस्येव कथ्यते ।
अज्ञानं चैव वेदान्तस्तस्मि नष्टेक्नविश्वता ॥
यथा रज्जु परित्यजय सर्प गृह्णाति वै भ्रमात् ।
तद्वत्सत्यमविज्ञाय जगत्पश्यति मूढधीः ॥
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अर्थात् जगत् केवल अज्ञान से ही प्रतीत हो रहा है । अज्ञान के नाश होने पर विश्व रहता ही नहीं । जैसे रज्जु में भ्रान्ति से सर्प बुद्धि हो रही है रज्जु के ज्ञान होने पर सर्प भ्रान्ति निवृत्त हो जाती है । अतः अज्ञानी ही जगत् को ब्रह्म से भिन्न देखता है ।
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वृद्ध पुरुषों ने भी कहा है कि –
उषर भूमि मृगतृष्णा के पानी को बहाने वाली नदी को प्राप्त नहीं कर सकती और न मृगतृष्णिका के पानी से भरी हुई नदी उषर भूमि का स्पर्श कर सकती । क्योंकि ऐसी नदी है ही नहीं ।
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स्वयं भी ब्रह्म का नाश नहीं होता क्योंकि वह अक्षर है । शीतोष्णादि द्वन्द्व भी उसका स्पर्श नहीं कर सकते । क्योंकि वह स्पर्श धर्म से अतीत है । जल में डूब नहीं सकता, मिट्टी में लीन नहीं हो सका क्योंकि ब्रह्म अरस और अगन्ध है, व्यापक होने से, आकाश में लीन नहीं हो सकता ।
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उपनिषद् में लिखा है कि वह ब्रह्म शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध आदि धर्मों से अतीत है । तथा अव्यय है ।
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गीता में भी इसी आशय से कहा है कि – यह आत्मा जन्मता, मरता नहीं, पैदा होकर फिर कभी पैदा नहीं होता, क्योंकि यह अज नित्य शाश्वत पुराण(सनातन) है शरीरों के अंश से भी इसका नाश नहीं होता । शस्त्रों से नहीं काटा जा सकता है । अग्नि इसको जला नहीं सकती । पानी से गीला नहीं होता और वायु इसका शोषण नहीं कर सकता । क्योंकि यह अछेद्य, अदाह्य, अशोष्य है ।
(क्रमशः)

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