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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६१/६४*
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धनि ए सांची साहिबी, क्यूं ही लखी न जाइ ।
जगजीवन भांनै५ घड़ै६, कहत न व्यापै ताहि ॥६१॥
(५. भांनै-नष्ट करै) (६. घड़ै-उत्पन्न करे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपकी मालिकियत ही सत्य है आप ही सच्चे मालिक हैं यह बात सबके समझ में क्यों नहीं आती है । कितना ही नष्ट कर स्वयं प्रभु बनाते रहते हैं फिर भी किसी में व्याप्त नहीं होते हैं ।
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कहि जगजीवन क्यूं कहै, त्यों त्यों आगै चाहि ।
अति गति अलख अगाध बिन, कोंण बुझावै ताहि ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु को कहना ही नहीं पड़ता की आगे जीव को क्या क्या चाहिये वे सारी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं । ये सब उन अलख अगाध जिनकी कोइ थाह ही नहीं पा सकता उन प्रभु के बिना इस लीला को कौन पूरी कर सकता है, वे ही सबको वांछित देने वाले समर्थ सिरजनहार हैं ।
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जगजीवन गिरिवर७ तिरे, अलख तुम्हारे नांम ।
पंच तत्त्व की कहा हरि, जे मन सुमिरै रांम ॥६३॥
(७. गिरिवर-पर्वत के सदृश पत्थर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी आपके नाम से तो पत्थर भी पानी में तैर जाते हैं ये पांच तत्त्व की देह का क्या भार है यदि यह भी राम नाम स्मरण करें तो अवश्य भव पार होगी ।
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जुगल प्रंसगै८ ऊपजै, खाख९ लपटि खप जाइ ।
रोजी रोज अगाध करि, जगजीवन जन पाइ ॥६४॥
(८.जुगल प्रंसगैं-स्त्री-पुरुष के रज एवं वीर्य के संयोग से)
{९. खाख-राख(=भस्म)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह जीव स्त्री पुरुष के संयोग से तो जन्मता है । व मिट्टी में लिपट कर समाप्त हो जाता है वह जीव अनंत जीविका नित्य प्रभु से ही पाता है ।
(क्रमशः)

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