रविवार, 9 अक्टूबर 2022

*२६. जीवतम्रितक कौ अंग २५/२८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२६. जीवतम्रितक कौ अंग २५/२८*
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मूंन पकड़ि मांहै मरै, कारज करि लै सार ।
कहि जगजीवन हरिभगत, हरि भजि उतरै पार ॥२५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो मौन रहकर इच्छा त्यागते हैं जिनके अंतर से भी इच्छा मर जाती है उनके सब कार्य सिद्ध होते हैं । जो हरिभक्त हैं वे हरि की भक्ति से ही पार उतरते हैं ।
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मूंन पकड़ि मांहै मरै, हरि भजि थांभै७ सास ।
तेज पुंज मंहि मिलि रहै, सु कहि जगजीवनदास ॥२६॥
{७. थांभै=रोके(निरुद्ध करे)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो मौन रहकर सब इच्छा मार लेते हैं और प्रभु स्मरण के अलावा उनकी सांसे किसी अन्य कार्य हेतू नहीं चलती वे सच में प्रभु के तेजोमय स्वरूप में ही मिल जाते हैं ।
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कहि जगजीवन छिमा धन, ग्राहिय करै गुन गाइ ।
अगनि अहार न्रिव्रिति स्वांति, यों दुष्ट क्रोध मिटि जाइ ॥२७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि क्षमा रुपी धन को प्रभु की महिमा गा कर ग्रहण करें । अग्नि, आहार, त्याग व स्वांत यानि सब कुछ स्वांत का अर्थ स्व में स्थित अहं भाव से है त्यागने से दुष्ट क्रोध भी मिट जाता है ।
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तेरौ मरिवौ सुंनि महिं, जहां निरंजन राइ ।
कहि जगजीवन रांमधरि८, सहज समावै आइ ॥२८॥
(८. रांमधरि-भगवान् का आवास)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है जीव तुझे इच्छा रहित देखकर वह हृदय भी वहां जहाँ प्रभु रहते हैं, संत कहते हैं कि ऐसे ही ह्रदय में प्रभु सहज रुप से रहते हैं ।
(क्रमशः)

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