शनिवार, 7 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८१

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८१)*
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*२८१. साधु प्रति उपदेश (गुजराती) । ललित ताल*
*निर्पख रहणा, राम राम कहणा,*
*काम क्रोध में देह न दहणा ॥टेक॥*
*जेणें मारग संसार जाइला, तेणें प्राणी आप बहाइला ॥१॥*
*जे जे करणी जगत करीला, सो करणी संत दूर धरीला ॥२॥*
*जेणें पंथैं लोक राता, तेणैं पंथैं साधु न जाता ॥३॥*
*राम नाम दादू ऐसें कहिये, राम रमत रामहि मिल रहिये ॥४॥*
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भा०दी०-साधकसाधूनुपदिशति श्री दादूदेव निष्पक्षभावेन सद्भिः प्रभुस्मरणं कर्तव्यम् । नहि तैर्द्वताऽद्वैतपक्षमवलम्ब्य विवाद: कार्य: । कामक्रोधादिदोषेभ्यो विदूरं भवितव्यम् । नहि सांसारिकाणां मार्गोऽनुसरणीयः । यतो विषयप्रधानेन यथा गच्छतां मानवानां पतनमेव दृश्यते । यान्यनु-चितानि शास्त्रनिषिद्धानि सांसारिकजनप्रियाणि कार्याणि तानि सर्वाणि साधकेभ्यो हेयानि । हि सन्तो भोगप्रधानमार्गमवलम्बन्ते किन्तु रामस्मग्णेन भगवदानन्दे निमग्न: सर्वत्र रामस्वरूपमेद पश्यन्ति । एतादृश्युपासना हि श्लाघीयसी भवति ।
उक्तं हि श्रीमद्भागवते
अहो अनन्तदासानां महत्वं दृष्टमद्य मे ।
कृतागसोऽपि यद् राजन् भङ्गलानि समीहसे ॥
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् ।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतामृषभो हरिः ॥
यन्नाम-श्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मल: ।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामवशिष्यते ॥
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साधक सन्तों को उपदेश कर रहे हैं श्री दादू देवजी महाराज :- सत्पुरुषों को भगवान् का भजन निष्पक्ष भाव से ही करना चाहिये । द्वैत-अद्वैत आदि पक्षों का अवलम्बन करके वाद विवाद नहीं करना चाहिये । काम क्रोध की आग में अपने को नहीं जलाना चाहिये । संसार जिस रास्ते से चलता है, सन्त उस रास्ते से नहीं चलते, क्योंकि संसार का रास्ता विषयप्रधान होता है ।
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संत यदि उस रास्ते चलेगा तो उसका पतन अवश्य होगा । जो कार्य अनुचित तथा शास्त्रनिषिद्ध व संसारी पुरुषों को प्रिय है, सन्त उस रास्ते का अनुसरण नहीं करते । सन्त भोगप्रधान मार्ग से नहीं चला करते । सन्त तो रामनाम करते हुए रामभक्ति में मस्त होकर भजन का आनन्द लूटते हुए भगवान् के स्वरूप में लीन हो जाते हैं ।
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श्रीमद्भागवत में कहा है कि –
दुर्वासाजी अम्बरीष राजा से कह रहे हैं कि – धन्य है, आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा । हे राजन् ! मैंने आपका अपराध किया फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं । जिन्होंने भक्तों के परमाराध्य श्री हरि को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है, उन साधु पुरुषों के लिये कौन सा कार्य कठिन है ?
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जिन का हृदय उदार है वे महात्मा भला किस वस्तु का त्याग नहीं कर सकते ? जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है उन्हीं तीर्थ-पाद भगवान् के चरण-रज के जो दास हैं, उनके लिये कौन सा कार्य शेष रह जाता है ?
(क्रमशः)

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